26. “ एक सच ऐसा भी ...! ” अर्थात सत्संग अथवा मार्गदर्शन की आवश्यकता आज की प्रत्यक्ष उपलब्ध स्थिति विशेष में किसी भी मनुष्य को कदापि भी नहीं हैं .....! क्योंकि अपने महान-महान कृत्यों विशेषो से उपलब्ध प्रत्यक्ष नतिजों विशेषो से इस ने जो अपनी आवश्यक मंजिल विशेष निर्धारित कर ली हैं उस तक पहुंचने के लिये यह निरन्तर उत्साहित विशेष हो कर बड़ी ही तेजी से आगे बड़ता जा रहा हैं और फिर अब तो कुछ ही कदम का फासला रह गया हैं । इसे अब रोकना या वापस मोड़ना लगभग घौर असम्भव विशेष हैं । अब तो इसे अपनी “ मनपसंद ” मंजिल तक ओर जल्दी पहुंचने हेतु मदद विशेष की आवश्यकता हैं ताकि यह जल्दी से जल्दी अपने कमाये हुए नतिजों विशेषो का खूब अच्छी तरह से आनन्द विशेष अनुभव कर सके – अर्थात इस के प्रत्येक सूक्ष्म से भी सूक्ष्म सोच रूपी व्यवहारिक विशेष बलात्कार का भी बड़ा ही उत्तम तथा अधिकारिक मुआवजा विशेष “ मान-सम्मान रूपी संपन्न समृद्धि विशेष-विशेष ” प्रत्यक्ष करवा सके व्यवहारिक रूप से ताकि यह चतुर जीव बड़ी ही होशियारी से कई गुना अधिक होश तथा जोश से प्रति पल अधिक से अधिक प्रभावकारी बलात्कार विशेष महान-महान करने में ही निरन्तर संलग्न विशेष रहे – ताकि यह तुरंत ही अपनी मनपसन्द मंजिल में अनन्त काल तक के लिये “ परमानंद ” की अवस्था हेतु समा जाये .....! कोई इस कार्य विशेष को कर सके या नहीं – परन्तु “ विधि रूपी प्रकृति ” बड़ी ही सावधानी रूपी चतुराई विशेष से निरन्तर इस दुर्लभ कार्य विशेष को करने में संलग्न विशेष हैं । और फिर मंजिल विशेष महान के प्राप्त होते ही जीव को निरन्तर बड़े ही विचित्र-विचित्र ढंगों विशेषो से बड़े ही बारीकी से नतिज़ो के प्रत्येक पहलू को याद कराया – दोहराया – रटाया जाता हैं ताकि उसे हर स्थिति में याद रहे कि उसे क्या करने को भेजा गया था और उस ने क्या-क्या उल्टा-पुल्टा नहीं किया अर्थात कुछ भी करना तो दूर रहा सोचने से भी पहले सोचे कि उसे क्या सोचना चाहिए और क्या भूले से भी नहीं यानी के “ ऐसा कम मूले न कीजै – जिस अन्त पिच्छोताइये ” ।

     मन्दा किसे ना आखिये – पढ़ अखर ऐहो बुझिये मूर्खे नाल ना लुझिये ” – यानी के मूर्ख महान कहलाने हेतु भी आप की ऊपर की मंजिल विशेष में कुछ सामान विशेष होना चाहिये – यहाँ पर तो ऊपर का खाना बिल्कुल ही खाली हैं । विवेक हेतु बुद्धि की आवश्यकता हैं – फिर बुद्धिहीन का क्या ईलाज – वैसे सामाजिक प्रमाणपत्र तो इसे काफी उपलब्ध विशेष हैं .....!

     सुच्च होवे ता सच पावै ” अर्थात आधारभूतिक सच विशेष को अनुभव करने हेतु सुच्च यानी के घौर मर्यादित रूपी पवित्रता का मन तथा जीव में प्रामाणिक तौर पर प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष होना आधारभूतिक आवश्यक विशेष हैं – प्रत्येक स्थिति-काल विशेष में भी । ये जो नहा – धौ – मुंह सिर – काला सफेद लाल नीला किये – टाई लीरों डिज़ाइनो का चोला पहने – कुदाल पेंसिल से अपने स्नान हेतु जो तालाब विशेष खोदने में निरन्तर घौर व्यस्त विशेष हैं – उन्हें सुच्चा विशेष समझने की गलती न कर बैठना चाहे वो कितने ही महान-महान व्याख्यान ब्यान कर रहे हो अथवा लाखों-करोड़ों की भीड़ एकत्र कर पंथ – मत – धर्म – नीति – चैरिटी चला रहे हो – सावधान रहिये गा क्यों कि सुच्चता का लयाकत अथवा भीड़ से दूर-दूर तक कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं । और जो तालाब विशेष इन्हो ने स्वयं की मेहनत महान विशेष से तैयार किया बनाया हैं – वह सल्फयूरिक ऐसिड़ (Sulfuric Acid) महान से भरा हुआ हैं और फिर अनुयाइयों को भी तो अधिकार हैं इन में डुबकी विशेष लगाने का .....! ये तो फिर डुबकी लगाने के बाद ही पता चलेगा कि बाकी क्या बचा .....?

     अन्दर तो झूठ – छल – कपट – विकारों का महान भण्डार विशेष भरा पडा हैं और बाहर से सजे-संवरे स्वेत धारी परमेश्वर-पुत्र – पैगम्बर – पातशाह – मसीहा – सटार महान-महान – छोटी बडी सरकारे इत्यादि बने – चैरिटी दस पैसे की चलाते हुऐ करोड़ों-अरबों हज़्म विशेष करने में ही निरन्तर संलग्न विशेष हैं – जो की साधारण मनुष्य का खून-चर्म-हड्डी के सिवा और कुछ भी तो नहीं हैं – फिर भी दौड़-दौड़ करसभी एक्त्र विशेष करने में ही घौर व्यस्त विशेष हैं .....! इस का नतिजा-मंजिल तो स्पष्ट ही हैं .....! फिर भी मददगार तथा अनुयायी इसी को कमाने में स्वंय को महान से महानतम साबित कर रहें हैं .....! जिन्दगी भर महान कहलाने वाले ने आखिरी वसीयत की की मेरे मरते ही मेरे हाथ खोल ताबूत से बाहर प्रदर्शित करना ताकि सभी देख सके कि इतना साधन सम्पन्न महान भी केवल खाली हाथ ही जा रहा हैं .....! लेकिन सभी ब्लातकारो का एक जर्रा भी पीछे नहीं छूटेगा अर्थात सभी महान रेप ब्याज सहित आप के साथ ही नहीं बल्कि आप के आगे-आगे आप का कमाया हुआ मंजिल रूपी झंडा विशेष महान ले कर नारे लगाते हुऐ चलेंगे कि आप कितने महान से भी महानतम हैं .....! और पीछे छूटे पर जो कुत्ते-बिल्ले जुगाली विशेष करेंगे उन बिचारो का क्या होगा .....? कौन जाने और कौन कैसे किस तरह से बताये .....!

     माया मरी न मन मरा – मर मर मरे शरीर ” – अर्थात सभी सत के वैज्ञानिकों ने लिख कर बताया हैं कि आशा और तृष्णा के आकर्शणों से भरी कामनाओ और वासनाओ का कोई भी अन्त ही नहीं हैं और यदी कुछ भी अन्त विशेष हैं तो केवल शरीर विशेष का जो भेंट चड़ता हैं इन्हे पूरा होने हेतु .....! और ये हैं कि हर अगले जन्म विशेष में यह और भी अधिक पहले से बड़ कर ही प्रबल रूप से प्रत्यक्ष विशेष होती हैं “ नागिन विशेष ” के रूप में .....! “ माया होई नागनी जगत रही लपटाई – इस की सेवा जो करे तिस ही को फिर खाई ।

     आत्मा और प्राकृति दोनो ही आधारभूतिक मूल विशेष के अंश हैं । आत्मा में निश्चित सोच तथा चरित्र विशेष हैं तथा प्रकृति सोच तथा चरित्र रहित खामोश हैं । इन के बीच में “ समर्था विशेष ” हैं जो आधारभूतिक सोच विशेष को धारण करती हैं । समर्था ही आधारिक “ सोच रूपी क्षमता ” का सूक्ष्म रूपी अदृश्य आवरण प्लस तथा माइनस का प्रत्येक आत्मा पर चढ़ाये रखती हैं – आत्मा के कमाये हुऐ नतीजो का प्लस माइनस आद से पूर्ण गणना सहित । इस में फेर-बदल रोक या बदलाव का किसी भी तरह से कल्पना में भी वैचारिक अभाव निश्चित हैं – प्रत्येक काल-स्थिती विशेष में भी तकनीकी कारण से अर्थात इस “ सोच रूपी क्षमता ” में दखल अथवा जानने की क्षमता इस साफ्टवेयर में किसी के पास भी नंही हैं .....! यही “ सोच रूपी क्षमता ” आकाश रूपी तत्व विशेष को जन्म देती हैं । इस आकाश तत्व से सूक्ष्म प्रकृति प्रत्यक्ष होती हैं जो स्थूल प्रकृति रूपी वायू को प्रत्यक्ष करती हैं । फिर वायू से जल तथा जल से अग्नि और फिर अग्नि से स्थूल तत्व पृथ्वी का जन्म होता हैं । इन चारो नज़र आने वाले विकृत तत्वो का निश्चित चरित्र “ सोच रूपी क्षमता ” के द्वारा आकाश तत्व से निर्धारित होता हैं । और इस अपने निर्धारित चरित्र से कोई भी “ तत्व रूपी कण ” भूले से भी बाहर नहीं जा सकता । लेकिन इन तत्वो के जमा-घटा से बहुत से चमत्कारिक रूप – आवरण – साधन – सुगन्ध – आवाज़े – स्वाद – सम्पदा इत्यादि वगैरह-वगैरह प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष होते हैं – जो प्रत्येक आत्मा विशेष को किसी न किसी कारणवश – किसी भी रूप में आकर्षित करते ही हैं । आत्मा जितनी अधिक जिस कारणवश आकर्षित होती हैं उतना ही उसे इस से मोह हो जाता हैं – फिर यही मोह आगे चल कर खो जाने के भय से अपराध रूपी लोभ तथा स्वार्थ को जन्म देता हैं – फिर यही लोभ और स्वार्थ पूर्ति बहुत ही तड़पाने वाले भंयकर-भंयकर दुखो को जन्म विशेष देती हैं – जिन का कभी भी अन्त तो होता ही नहीं हैं .....! प्रकृति के इस सुनहरी जाल में एक बार फंसने के बाद ये उस से निकल ही नहीं पाती केवल और केवल “ मोह पाश ” के कारण । बार-बार एक ही क्रिया सभी “ जन्मों-रूपों ” में दोहराने के कारण यह अपने वजूद को ही खो अथवा भुला बैठती हैं और निकृष्ट जूनो तथा नर्को विशेषो में धक्के खाती-भटकती भूखी-प्यासी तड़पती रहती हैं तृप्ति हेतु .....! जब कि भण्ड़ार इसके अन्दर ही उपलब्ध विशेष हैं लेकिन ये उस की तलाश बाहर प्रकृति में करती हैं यही इस की सबसे बड़ी विड़म्बना हैं .....! सत के विज्ञानिको ने लिखा हैं कि “ जिन खोजा तिन पाया ” अब उस ने रीमिक्स कर लिया आज की सोचा अनुसार महानतम बनने हेतु “ जिन खुजाया तिन ही पाया ” । अतः अब ये अपनी खुजली मिटाने हेतु भीड़ रूपी लैन में – पिछवाड़ा खोल हाथ में बोतल पकड़े तेल की खड़ा हो गया और फिर खुजवा भी किन से रहा हैं जो स्वंय ही टूटी हीन हीजड़े श्रेणी के हैं .....! लेकिन उन्हो ने इस आभाव का आवश्यक उपाय खोज लिया हैं । यानि के उन्हो ने एक ऐसी कृतिम सीरिंज बना ली हैं जिस में लफज़ रूपी नाम अथवा जल रूपी अमृत भर कर पीछे से पिछवाड़े में तेल लगा कर ठोक देते हैं और लगवाने वाला भी सन्तुष्ट हो निहाल हो जाता हैं कि उस के सभी ब्लातकार हवा हो गये हैं और वो मुक्त हो देवत्व को प्राप्त कर गया हैं .....! फिर आनन्दमग्न हो इतना दयाल हो जाता है कि तेल कम्पनी से ड़ायरेक्ट कनैक्शन अपने पिछवाड़े में लगवा लेता हैं ताकि ठोकने वालो को सहूलियत रहे और वो जब भी चाहे जितना चाहे ठोक ले अथवा निकाल विशेष ले अपनी सुविधानुसार .....!

     सोच रूपी क्षमता ” विशेष का अपना कोई चरित्र नहीं होता यह तो केवल “ समर्था विशेष ” की मांग को पूरा करने हेतु ही सदा निरन्तर प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष रहती हैं । सूक्ष्म तथा स्थूल प्रकृति की गठना हेतु आत्मा के साथ मन रूपी साफ्टवेयर लगाया जाता हैं । इन दोनो का आधार समर्था विशेष ही हैं – जन्म दाता के रूप में । और उपर के मण्ड़लो में जाने पर यह मन वापस इसी विकराल समर्था विशेष में समा जाता हैं तथा नीचे के तीनों मण्ड़लो में कही पर भी उतरते ही यह फिर से साथ में स्थापित हो जाता हैं । “ विशेष धर्म ” में पूर्ति हेतु जो प्रकृति रूप या व्यवहार में विरोधाभास अथवा टकराव विशेष होते हैं उस का कारण “ सोच रूपी क्षमता ” द्वारा विशेष मांग को पूरा करना हैं – शेष प्रकृति के चरीत्र को निश्चित निर्धारण में कार्यान्वित रखते हुऐ । इसी कारण प्रकृति के वैज्ञानिक भ्रमित हो कर कई प्रकार के योग-संयोग इत्यादि द्वारा गलत दिशा में भटक कर मनुष्य जन्म का अर्थ ही गंवा बैठते हैं । बहुत स्थानो पर जो एवोलूशन की संज्ञा दी गयी हैं यही इन का मुख्य भटकाव हैं अर्थात सब कुछ जीव के सोच रूपी व्यवहार से कमाया गया निश्चित नतिजा विशेष ही हैं – जो अनन्त कल्पो के बाद भी व्यवहारिक रूप से उपलब्ध प्रत्यक्ष विशेष होता हैं – जिसे पूरा का पूरा प्रत्येक जीव को भोगना या भुगतना ही पड़ता बिना किसी भी डील-हुज्जत के ब्याज सहित – तभी जा कर आत्मा पर चढ़ा “ सोच रूपी क्षमता ” का पर्दा विशेष हटता हैं और वो अपने वजूद तथा आधार को जानने में सक्षम समर्थ विशेष हो पाती हैं – इस के अतिरिकत और कोई भी उपाय उपलब्ध विशेष नहीं हैं । कोई भी अधीक कमाई वाला जीव नतीजे में अपनी कमायी से रोक तो लगा सकता हैं लेकिन मिटाने की कोई भी कल्पना विचार में भी उपलब्ध नहीं हैं – फिर रोक लगाने के लिये जितनी कमाई खर्च की गई हैं – उस की अवधी खत्म होते ही नतीजा पहले से बड़कर विद इन्ट्रेस्ट प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष हो जाता हैं – जो स्फेद की जगह लाल आंसू भुगतने को मज़बूर विशेष कर देता हैं – अनन्त कल्पो विशेषो के बाद भी पूरा का पूरा .....!

     सोच रूपी क्षमता ” ही पहले सूक्ष्म काला सा बोर्ड़ रूपी आधार यानी एनर्जेटिक साफ्टवेयर प्रत्यक्ष विशेष करती हैं तथा फिर उस में ये सूक्ष्म प्रकृति विशेष को स्थापित किया जाता हैं । “ सोच रूपी क्षमता ” विशेष से ही प्रकृति चरित्र तथा कार्यान्वित विशेष होती हैं इस में शक अथवा दख्ल की कोई भी गुंजाइश ही नहीं हैं .....!

     केवल शब्द यानी के “ रागमई प्रकाशित आवाज़ ” विशेष ही सब कुछ हैं तो ऐसा भ्रम भी मत पालियेगा क्योंकि “ आधार रूपी मूल विशेष ” इस से भी बड़ कर और भी अनन्त प्रकार के “ गुण-धर्म ” प्रत्यक्ष उपलब्ध कार्यान्वित विशेष हैं – जिन का विचार विशेष करने की भी क्षमता किसी में भी नहीं हैं – आप के द्वारा पूज्य प्रभु के पितामहो में भी केवल “ नहीं ” .....! जो स्वंय ही उस के खाक से भी परे बहुत दूर  विशेष हैं .....!

     आप संवारे मैं मिलया – मैं मिलया सुख होये ” यानी के सत के वैज्ञानिक लिख कर बता गये हैं कि अगर हे जीव तू केवल स्वंय आप को ही संवार विशेष ले यानी घौर मर्यादित रूपी पवित्र विशेष कर ले तो यकीन जान कि सारा का सारा ब्राहमण्ड ही तुझ में समाने हेतु तेरे पीछे –पीछे दौड़ पड़ेगा .....! जब सब कुछ तुझ ही में समाया हुआ होगा तो फिर कोई भी दुःख कैसे और कंहा से क्यों कर तुझे उपलब्ध विशेष होगा .....? और तेरे सजने संवरने का कार्य तो केवल और केवल तुझे ही करना हैं । आज ही अभी से अथवा अनन्त जन्मों कल्पो के बाद भी केवल तू ही करने में समर्थ विशेष हैं – बाहर कंही से भी नहीं और किसी के द्वारा भी असम्भव .....!

     सब में एक वरतदा – जिन आपे रचन रचाई ” अर्थात केवल एक ही मददगार हैं जिस ने तुझे प्रत्यक्ष किया हैं और सब का उस पर बराबर का पूरा-पूरा अधिकार विशेष हैं । सब कुछ वही हैं फिर कब वो ठंड़ से कैसे शिलिंग हो गया अथवा कैसे गर्मी से भाप हो कर घट गया कि तुझे इन्जैक्शिन लगवाने हेतु मज़बूर होना पड़ा .....! तुझे स्वंय ही पढ़ना तथा स्वंय ही खुद को पढ़ाना भी हैं तभी तेरा कल्याण सम्भव हैं । तू हैं कि गद्धी बिछा लगा हैं दूसरो को पढ़ाने – यही मन की चाल तथा तेरा भटकने का दौर शुरू हैं । एक बार भटक गया तो फिर कभी भी तू वापस लौट नहीं पायेगा .....! इस प्रकृति के सुनहरे जाल में तू सदा के लिये कंही गुम सा हो जायेगा और फिर यहां तक की तू अपने वज़ूद रूपी क्षमता विशेष तक को भी तू भुला बैठेगा सदा के वास्ते .....! इस लिये सदा निरन्तर स्वंय को पढ़ा कि तू और वो दोनो एक ही हैं यानी के “ अंह ब्राहस्मी ” .....! प्रत्येक छोटे से छोटे कण की भी वही एक सी क्षमता रूपी पहचान हैं अनन्त जैसी जिस का तू जर्रा विशेष हैं । सोने का प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म कण भी केवल वही एकमात्र सोना विशेष ही हैं .....!

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