25. धर्म अथवा ईलाज – दया धर्म का मूल हैं – पाप मूल अभिमान अर्थात हे पावन पवित्र आत्मा विशेष पहले तू चैरिटी को छोड़ और खुद स्वंय अपने पर एक विशेष परोपकार कर – जिस के हेतु तुझे ये दुर्लभ आवष्यक मनुष्य का जन्म विशेष मिला हैं – यानि के अपने स्वंय के इस लोभी – स्वार्थी – पापी मन विशेष को इस धर्म अर्थात सत्य अथवा नाम (अमृत) या गुरू-सतगुरू अर्थात शब्द यानि के केवल रागमई प्रकाशित आवाज़ अथवा परमात्मा विशेष के साथ जोड़ .....! ( शब्द गुरू सुरत धुन चेला ) केवल यही धर्म की असली रूहानी परिभाषा विशेष हैं .....!

       यानि के धर्म के भाव हैं अपने अंतर मन में केवल एक प्रभु को ही धारण विशेष करना तथा इस प्रक्रिया विशेष आवष्यक में कर्म-काण्ड़ हैं केवल अपने निजी जीवन को ही निरन्तर मर्यादित विशेष करना यानि के अपने रोज़मर्या के निजी जीवन में प्रत्येक छोटी से छोटी विचारक व्यवहारिक स्थिति विशेष में भी स्वंय को नियम-मर्यादा के अनुकूल ही प्रत्यक्ष स्थापित विशेष करना अर्थात प्रत्येक पोज़िटिव विचार को अपने जीवन में व्यवहारिक ­“ अमली ” ज़ामा विशेष पहनाना तथा इसी संकल्प विशेष को निरन्तर आज़ीवन बनाये रखना ही असली परमार्थ विशेष हैं .....!

       रस सुइना ” अर्थात सोना-हीरा इत्यादि एकत्र करना – “ रस रूपा ” यानि के रूपो विशेषो के पीछे भागना अथवा स्वंय के रूप में कमी अनुभव करते हुऐ उसे ही संवारने में निरन्तर संलग्न विशेष रहना – “ कामण रस ” यानि के मन इन्द्रियों की सभी अस्वभाविक वासनाओ को पूरा करने हेतु तामसिक वृति अपनाना अर्थात “ काम ही काम ” हैं में निरन्तर विचरना- संलग्न विशेष रहना – “ परमल की वास ” यानि के पहले तो घर समाज को दूषित-पुलोषित करना तथा फिर इन से बचने हेतु सुधरने के बजाये सुगन्धियों के पीछे भागना – “ रस घोड़े ” अर्थात दिखावे हेतु बड़े-बड़े साधनों विशेषो को एकत्र कर प्रदर्शित करना – “ रस सेजा मंदर ” अर्थात रहने हेतु बड़े-बड़े महलों विशेषो की कामना रख कर उन्हे बनाते तथा सजाते रहना तथा इसी वासना में फंसे रह कर प्रेतों की जूनों  में वास करने का नतिजा तक भुगतने हेतु भी त्यार विशेष रहना – “ रस मीठा ” अर्थात ज़बान के स्वाद हेतु निरन्तर अलग-अलग पकवानों विशेषो में ही ज़िन्दगी गुजारते हुऐ रोगी विशेष बने रहना – “ रस मांस ” अर्थात पोषण हेतु सात्विक जीवन का त्याग कर सृष्टि के दूसरे प्राणियों का कत्ल विशेष- विशेष करते हुऐ अलग-अलग तरह से “ शेखी बखारना ” तथा निरन्तर इस अमानविय घृणित कृत्यों विशेषो को करते हुऐ कामी-अपराधिक वृति विशेष को निरन्तर पोषित विशेष करते हुऐ सदा के लिऐ “ तामसिक ” हो जाना अर्थात मनुष्य जन्म के आवष्यक अर्थ विशेष को ही सदा के लिये खो देना – “ ऐते रस शरीर के ” अर्थात इतने सारे वादों विवादों से भरपूर रसमय शरीर रूपी घट आवश्यक विशेष में “ कै घट नाम निवास ” अर्थात नाम-अमृत यानी के केवल रागमई प्रकाशित आवाज़ विशेष अथवा प्रभू के निरन्तर प्रत्यक्ष विशेष होते हुऐ भी भला आत्मा कैसे इस प्रभु मिलन को सम्भव बनाने हेतु समर्थ विशेष हो सकती हैं ..... ?

       मन का सूतक लोभ हैं ” – अर्थात जगत में जितना भी लोभ तथा स्वार्थ महामारी के रूप में उपलब्ध विशेष हैं उस का जन्म दाता भगवान केवल “ मन ” विशेष ही हैं और जगत में सभी फैंसले आप केवल मन को ही प्रत्यक्ष रख कर लेने हेतु प्रचारित विशेष करते हैं अर्थात आप स्वंय ही इस बिमारी को महामारी का रूप विशेष देने हेतु ही निरन्तर संलग्न विशेष हैं .....! “ जिव्या सूतक कूड़ ” अर्थात जहां पर इस जुबान से केवल सत्य प्रभाषित करने का अभ्यास विशेष करते हुऐ जीवनयापन करना चाहिये, वंहा पर जीव निरन्तर बिना रुके केवल कूड़ अर्थात झूठ को ही सच का मुखोटा विशेष पहनाये हुऐ सच्चा साबित विशेष करने हेतु ही हर तरह के अपराध विशेष- विशेष कमाता हुआ निरन्तर अपना अर्थात पूरी मनुष्य जाति का ही पतन विशेष करने का साधन विशेष बनता जा रहा हैं .....! प्रतिदिन जीव जब भी किसी के भी सामने प्रत्यक्ष होता हैं तो उस सामने वाले के अनुरूप “ केवल अपने निजी लोभ-सवार्थ की पूर्ति हेतु ही ” एक अलग किस्म का ही मुखौटा विशेष लगा लेता हैं .....! फिर दूसरे के सामने --- तथा इसी तरह से आजीवन अपने ही हाथों से अपनी ही कब्र विशेष खोद कर अपने को ही ताबूत विशेष में बन्द विशेष कर उस पर निरन्तर आजीवन तरह-तरह की सुनहरी कीलें विशेष ठोक-ठोक कर उसे अच्छी तरह से पक्का विशेष करने में ही निरन्तर संलग्न विशेष रहता हैं .....! ताकि कोई उसे इस कब्र विशेष से बाहर निकालना भी चाहे तो वह “ परोपकारी महात्मा ” विशेष अपने इस नेक इरादे विशेष में कभी सफल विशेष ही न हो सके .....! “ अकखी सूतक वेखणा – पर त्रिया – पर धन – रूप ” अर्थात प्रभू ने आँखे तो दी थी जिन्दगी आसान बनाने हेतु – यदी शक हैं तो उन से जा कर पूछो जो बिना नेत्रों के जीवन जीने को विवश हैं .....! तब पता चलेगा कि बिना आँखे जिन्दगी जीना कितना मुश्किलों से भरा हुआ होता हैं । और आप हैं कि इस दुर्लभ आवष्यक कीमती दात विशेष को खर्च विशेष कर रहें हैं – आँखों द्वारा परायी स्त्री – पराये धन सम्पदा रूपी सुख साधनों – पराये रूपो को अपना बनाने हेतु निरन्तर सोच रूपी व्यवहारिक ब्लातकारों को पूरी तरह से सफल बनाने हेतु .....! और आपके इन महान कृत का नतिजा हैं – “ निमख काम स्वाद कारण कोट दिनस दुख पावै – घड़ी मुहूर्त रस मांडे फिर बहुत-बहुत पछुतावै ” – अर्थात केवल पलक झपकने तक के छोटे से समय विशेष में आप का मन जो हैं वो पराये-रूप-साधनो इत्यादि का पूरी तरह से ब्लातकार विशेष कर लेता हैं और विधि हरजाने के रूप में आप से करोड़ो दिन का नरक भोगने हेतु तड़पाने वाला भयानक हिसाब वसूल करना निश्चित कर देती हैं .....! यदि एक पल के ब्लातकार का यह नतीजा विशेष हैं तो पूरे दिन का तथा जीवन भर यह महान कृत करते रहने का नतिज़ा भला कौन सी मशीन से जान पाओगे अर्थात अनन्त काल तक का भयानक तड़पाने वाला नर्क विशेष आप ने स्वंय ही अपने लिये संसार में दोड़-दोड़ कर एकत्र विशेष कर लिया हैं और फिर आप की चीख-पुकार को उस वकत सुनने वाला कोई भी नंही होगा जब ये भुगतान वसूल किया जायेगा अर्थात फिर आप के पास भुगतने यानी के सिवाय पछताने के और कोई भी उपाय शेष नंही रह जायेगा .....! “ कन्नी सूतक कन पह – लाएतबारी खाये ” अर्थात आज तक यह साबित नंही हो सका हैं कि दूसरे की – परायी ईष्या-निन्दा-चुगली इत्यादि से कैसे और किस को कितना लाभ या आनन्द विशेष प्राप्त होता हैं .....? फिर भी प्रत्येकजीव जीवन भर निरन्तर इस सब को ही कमाता रहता हैं और अपने लिये केवल नर्को के दरवाजे ही नंही खोलता अपितु उपलब्ध नर्को विशेषो को निरन्तर और अधिक बड़ा तथा गहरा बनाने में ही संलग्न विशेष रहता हैं .....!

निन्दा भली किसे की नाही – मनमुख मुग्ध करन ।

मुंह काले तिन निन्दका – नर्के धौर पवण ।।

       हंस श्रेणी की आत्मा ” प्रत्यक्ष तो हुई थी अनन्त मंण्ड़लों पर राज विशेष करने हेतू – परन्तु मन की संगत में लोभी-स्वार्थी बन कर मजबूर हो गई नर्को विशेषो को रोशन करने हेतू .....!

       अब जो भी आत्मा ने लोभ-स्वार्थ की पूर्ति हेतू एकत्र विशेष किया हैं सभी साधनों-सम्बन्धों सहित – “ इस संपदा विशेष पर ” आत्मा विशेष को अभिमान अर्थात अहंकार विशेष हो जाता हैं और इस अहंकार का अम्ली होने पर “ क्रोध विशेष ” की अत्याधिकता का जन्म विशेष होता हैं और फिर प्रत्येक विचारिक अहम को पूरा करने हेतू ही “ अपराधिक प्रावृति ” की आधारशिला रखी जाती हैं – और कब आप नर्को विशेषो के अधिकारी बना-स्थापित कर दिये जाते हैं सदा के लिये आप को पता भी नंही चलता अर्थात “ पाप मूल अभिमान ” ।

       अतः जिन्दगी भर निरन्तर आप अपनी आत्मा पर एक ही दया अर्थात परोपकार करे कि वह मन सहित कभी भी एक क्षण के लिये भी सत्य (प्रभु) से अलग न हो तथा इसे निरन्तर अपने रोजमर्या के व्यवहारिक जीवन विशेष में प्रमाणिक रूप से साबित विशेष करे कि आप का “ मनुष्य मर्यादा ” का दृढ़ संकल्प विशेष हैं । यह मर्यादा विशेष आप घट में संचित आखिरी प्राण विशेष तक निभायें पूरी ईमानदारी विशेष से ।

       ज्ञान का बधा मन रहे ” अर्थात मन पर अंकुश केवल ज्ञान तथा निरन्तर इस उपलब्ध ज्ञान के व्यवहारिक अभ्यास विशेष द्वारा ही लगाया जा सकता हैं – किसी भी बाहरी इंजेकशन द्वारा पृतिरोपण नंही किया जा सकता न ही किसी महान की दृष्टि द्वारा – न ही किसी के नाम अथवा अमृत पान द्वारा .....! यह अंकुश केवल और केवल तेरे निज़ के ही व्यवहारिक आवश्यक संकल्प विशेष द्वारा निरन्तर ज्ञान की प्राप्ति हेतू तड़पना और इसे निरन्तर अभ्यासित विशेष करने हेतू मन-आत्मा को अम्ली जाम़ा विशेष पहनाना - द्वारा  ही सम्भव विशेष  हैं । इस की कसौटी हैं “ कागा करंग ढड़ोलिया – सगल स्वाइया मांस – इह दोउ नैना मत छूह – पिर देखण की आस ” अर्थात जब तक धर्म का आत्म व्यवहारिक बोध न हो – इस व्यवहारिक ज्ञान हेतू तड़पते रहना यंहा तक कि भूख-प्यास सहित इस शरीर का भी बोध न रहे और काग जब आप को मृत समझ कर आप को खाने हेतू नोचने लगे तब भी आप की आत्मा काग से कहे कि हे काग तू इस सारे शरीर का मांस बेशक-बेफिक्र हो स्वाद लगा-लगा कर खा ले परन्तु मेरी एक फरियाद सुन अथवा मान ले कि मेरे इन दोनो लोचन अर्थात आँखों के ड़ेलो को मत खाना – क्योंकि मुझे अभी तक मेरी मंजिल अर्थात धर्म की प्राप्ति नंही हुई हैं यानी के मुझे अभी तक  मेरे खस्म विशेष से प्रत्यक्ष साक्षातकार अथवा अनुभव विशेष नंही हुआ हैं – “ लेकिन ” मेरी “ आस ” रूपी वासना कि प्यास अभी बाकी हैं और मुझे पूरी उम्मीद हैं कि ये आत्मिक प्यास मेरे खस्म द्वारा अवश्य ही पूरी तरह से तृप्त विशेष की जायेगी अथवा बुझायी जायेगी यकीनी तौर पर .....!

       गुर बिन ज्ञान न होये ” अर्थात ये प्यास केवल गुरू यानि के केवल रागमई प्रकाशित आवाज़ द्वारा ही प्राप्त अथवा बुझनी संभव हैं “ वैधानिक ” तौर पर .....! संसार में केवल जानकारी उपलब्ध हैं और उस का भी फायदा होता हैं क्योंकि कल में आत्मा निपट अंधी और बहरी ही जन्म विशेष धारण करती हैं । लेकिन ज्ञान अर्थात सत्य का बोध तो यह हर पल निरन्तर सभी भंण्ड़ारों विशेषो सहित अपने निज हृदय विशेष में लगातार धारण विशेष किये रहती हैं – पर्दा रहता हैं तो केवल अनन्त काल में कमाये हुऐ अच्छे-बुरे कर्मों के नतिजों विशेषो का – जो केवल तुझे ही भुगतने और आगे की तौबा सदा हेतू ही – “ माफी अथवा प्रार्थना ” का रूहानी अर्थ विशेष हैं – का निरन्तर व्यवहारिक कमाना ही तेरी मुक्ति अथवा सदा के सुख की पहचान मात्र हैं जो केवल तुझी तक ही सीमित विशेष हैं .....!

       सतिगुरू हथ कुन्जी – होर ते दर खुल्लेह नाही ” अर्थात “ सत ” जो तीनो कालो में लगातार सदा प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष हैं – गुरू यानि के केवल रागमई प्रकाशित आवाज़ विशेष ही तीनो कालो विशेषो में सब कुछ बनाती – चलाती अथवा धारण विशेष करती हुई प्रत्यक्ष रूप से निरन्तर हज्म विशेष भी करती जाती हैं – लगातार बदलाव विशेष पहले से बेहतर विशेष करती हुई – ही “ कुंन्जी विशेष ” हैं इस आत्मा विशेष पर लगे हुऐ “ मन ” रूपी विषैले नाग जैसे दुर्लभ आवष्यक “ ताले विशेष ” की – और कोई भी साधन अथवा उपाय या उपचार उपलब्ध विशेष नंही हैं इस “ ताले विशेष ” से सदा हेतू मुक्त विशेष होने का .....! और ये आधार रूपी साधन विशेष कुंन्जी केवल रागमई प्रकाशित आवाज के रूप में ही सदा सभी के लिये सर्वत्र होते हुऐ भी – तेरे स्वंय के ही अन्तर में निरन्तर प्रत्यक्ष विधमान विशेष रहती हैं । बाहर आज तक न ये किसी को मिली हैं और न ही कभी भी मिलेगी – केवल भ्रम-मरीचिका अथवा धोखे विशेष को छोड़ कर । जगत में गुरू-सतगुरू-ड़ेरे-तीर्थ-धर्म-कर्म कांण्ड-यंत्र-ग्रन्थ-पातशाह इत्यादि वगैरह-वगैरह महान-महान केवल और केवल “ धोखा ” विशेष ही साबित होंगे प्रत्येक काल अथवा परिस्थिती विशेष में – इस प्रत्यक्ष व्यवहारिक उपलब्ध “ रागमई प्रकाशित आवाज़ विशेष ” दुर्लभ आवष्यक कुंन्जी विशेष के परोक्ष में .....!

     कहे प्रभ अवरू-अवरू किछ कीजै ” अर्थात प्रभु अपनी उपलब्धता को किस तरह से प्रत्यक्ष कर रहा हैं इसे भुला कर अथवा अन्जान हो कर आप उस के अलग कुछ और-और ही करने में निरन्तर संलग्न विशेष हैं – तो आप का ये सारा आडंबर-दिखावा-मंत्र-पाठ-पूजा-अर्चना-सेवा इत्यादि-इत्यादि श्रंगार रूपी कर्मकाण्ड़ केवल बदबू से भरा प्रत्यक्ष गटर विशेष ही साबित होगा प्रत्येक काल-स्थिती विशेष में, अर्थात आप का कीमती मनुषय जन्म केवल व्यर्थ के ही फोकट के विषयों में ही बीत विशेष जायेगा – और जिस आवष्यक कार्य विशेष हेतू आप का दुर्लभ आवष्यक मनुष्य का जन्म विशेष हुआ था वो तो बीच में ही दफन हो कर कब्र विशेष बन जायेगा अर्थात “ सब बादि सींगार – फोकट फोकटइया । कियो सींगार मिलण कै ताई – पृभ लियो सुहागण “ थूक ” मुख पईआ । ” - यानी के यदि मरने से पहले तुझे अपने स्वरूप से साक्षात्कार नंही हुआ “ केवल जीते जी ” ही तो समझ ले कि तुझे अपने ही मुख पर पड़ी हुई स्वंय की ही कमायी हुई “ थूक विशेष ” अर्थात चौरासी लाख रूपी निकृष्ट कमीनी जूने अथवा नर्को विशेषो में भ्रमण हेतू मजबूर विशेष होना या चाटने को विशेष विवश होना ही पड़ेगा – प्रत्येक काल में तेरे सभी महान-महान साधनों विशेषो का प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष होने के बाद भी “ वैधानिक ” तौर पर .....!

       मरने के बाद केवल तेरी महान-महान करतूते ही तुझे लेने आती हैं न कि “ सतगुरू विशेष ” अर्थात रागमई प्रकाशित आवाज़ विशेष – केवल मनुष्य जन्म में जीते जी ही प्रत्यक्ष कमाने–उपलब्ध विशेष करने का मजबून हैं – न कि मरनोपरान्त कर्म-काण्ड या प्रार्थनाओं इत्यादि का आधार रहित “ विषय ” विशेष .....!

       जिस “ ज्ञान विशेष ” से मन सदा के लिये शांत हो तृप्त विशेष हो जाता हैं वह बाहर कंही भी किसी से भी प्राप्त नंही हो सकता “ वैधानिक तौर पर ” – और न ही वो “ अन्दरूनी गल्तियों – विशेषो ” में प्राप्त होता हैं .....! फिर इस अदभुत अनोखे दुर्लभ आवष्यक ज्ञान विशेष का कौन सा आधारभूतिक स्थान विशेष हैं .....?

ज्ञान न गल्ली ढ़ूंडिये – कथना करड़ा सार .....!

       धर्म अर्थात अपने आधार अथवा मूल विशेष के प्रति सच्ची आसकती यानी के प्रभु को निरन्तर धारण विशेष करना – प्रभु यानी के नाम-अमृत अर्थात केवल रागमई दुर्लभ आवष्यक प्रकाशित आवाज़ विशेष जिसे गुरू-वर्ड-ज्ञान-कीर्तन-ताऔ-वाणी-लागोस-शब्द -सतगुरू वगैरह-वगैरह इत्यादि नामो से भी जाना-ब्यान विशेष किया जाता हैं – का  प्रत्यक्ष साक्षात्कार ही ज्ञान का विषय अथवा ज्ञानी पौरूष आत्मा विशेष होना धार्मिकता अथवा धर्म विशेष कहलाता हैं .....!

       मन का सम्बन्ध बाहरी जगत विशेष से हैं अर्थात संसार मन द्वारा रचित एक विशेष माया जाल हैं जिस में एक बार जीव फंस विशेष गया तो फिर उस का उस महाजाल विशेष से निकलना महाअसम्भव जैसा ही दुर्लभ विशेष हैं .....! मन के इस जाल विशेष में लफज़ों की महान जानकारी बहुत से “ मानो ” रूपी विभिन्न-विभिन्न विद्वताओ विशेषो को जन्म विशेष तो देती हैं लेकिन इन विभिन्न लुभानेवाली आकर्षक विद्वताओ के प्रमाणपत्रों विशेषो में असली “ ज्ञान दुर्लभ विशेष ” कंही दूर विशेष खो सा जाता हैं सदा के लिये .....! जो कि प्रत्येक आत्मा विशेष के लिये बहुत बडा नुकसान रूपी घौर पतन विशेष हैं “ मुंह पर थूक पड़ने ” जैसा महापतन .....!

       फिर जिस भी काल विशेष में जब भी कोई “ दुर्लभ ” सच्ची आत्मा अपने मूल आधारभूतिक आवष्यक “ सत्य ” विशेष के प्रति सच्ची आसिकत को जागृत विशेष करती हैं प्रमाणिक तौर पर – और घौर निरन्तर प्रयत्नशील विशेष होती हैं तथा “ तलाश विशेष ” करती हैं ठीक उस स्थान विशेष पर जंहा से संशोधित रूप में उपलब्ध विशेष हैं – निरन्तर “ सच्चे ज्ञान विशेष ” के रूप में – तो अवश्य ही उस दुर्लभ सच्ची आत्मा को यह सच्चा दुर्लभ आवष्यक ज्ञान विशेष प्राप्त विशेष हो जाता हैं – प्रत्यक्ष साक्षात्कार विशेष के रूप में – और उस के घौर महा अनन्त कल्पो विशेषो के महा भ्रम सदा के लिये मिट जाते हैं ईलाज विशेष के रूप में और उस “ शीतल-शांन्त-महासुख पाया ” की दुर्लभ आवश्यक पद्धवि की प्राप्ति विशेष होती हैं तथा उस सच्ची दुर्लभ आत्मा विशेष के लिये फिर कभी भी – कंही भी – कुछ भी जानना या अनुभव विशेष करना “ शेष विशेष ” नंही रह जाता .....!

पढ़ना – गुनना चातुरी – इह तो बात सहल .....!

काम दहन – मन बस करन – गगन चढ़न मुश्किल .....!

       अर्थात पढ़ना-लिखना-सुनना-दर्शन इत्यादी सभी मन से सम्बन्धित अभ्यास – यानि के एक गुण विशेष जो संसार के मान-पदार्थो इत्यादि से सम्बन्ध विशेष रखता हैं केवल अभ्यास – मर्यादा से ही प्राप्त विशेष हो जाते हैं और इसे तो सभी प्रयत्न विशेष कर के अनुभव विशेष कर ही लेते हैं आसानी से । लेकिन आत्मा विशेष को सभी “ कामों विशेषो ” की कब्र विशेष बनाना यानि के समस्त वासनाओं-इन्द्रियों से स्वंय को ऊपर उठाना तथा मन विशेष के को सदा के लिये अपने “ आत्मिक नियन्त्रण ” विशेष में रखना और फिर “ गगन की चढ़ाई ” विशेष पूरी कर लेना केवल स्वंय के ही जीते जी – मरने से पूर्व अर्थात पवित्र स्थान विशेष ज्ञान के भण्ड़ार “ दसवें द्वार ” तक का अपना असली सफर या मोटिव विशेष प्रत्यक्ष प्रमाणिक तौर पर पूरा या प्राप्त विशेष कर लेना, भाई ज़रा टेढ़ा यानि के थोड़ा मुशकिल सा विषय विशेष हैं सभी के लिये .....! आँख बन्द कर के मूर्खो की भांति बैठ विशेष जाना केवल फोकट का विषय विशेष हैं – “ आँख मीच मग सूझ न पाई – ताही अनन्त मिले किम भाई ” अर्थात आँख बन्द कर लेने भर से तो आत्मा स्वंय ही अन्धी विशेष हो जाती हैं उसे तो मार्ग भी नंही सूझता – तो फिर वो उस ज्ञान के भण्ड़ार रूपी “ महा घौर अनन्त ” विशेष को कैसे मिल अथवा अनुभव विशेष करने में समर्थ विशेष हो सकती हैं – अनन्त काल के बाद भी केवल इन फोकट के धन्धों विशेषो में फंस विशेष कर .....! जगत में लफ़जों को ज्ञान या नाम बता कर कानों में अंगूठे दे कर शब्द का मूर्खता भरा प्रचार केवल आत्मा का पतन विशेष हैं – पहले योग विशेष के पूर्व के दो अंग विशेष “ यम और नियम ” का प्रमाणिक पूरी ईमानदारी विशेष से अभ्यास विशेष करो केवल स्वंय के ही इस क्रूरता से भरे अमर्यादित जीवन विशेष में – और फिर पूरी तरह से संतुष्ट विशेष हो जाने पर ही ये मन विशेष आप का आप के अधीन यानि के वस विशेष में होगा और फिर “ ध्यान ” विशेष लगेगा तथा फिर ज्ञान विशेष का पहला चरण दिखाई विशेष देगा – जिस के बाद कुछ भी और देखना या जानना अथवा सुनना बाकी नंही रह जायेगा .....!

       आगे की पढ़ाई विशेष आप को फिर यंही पर करवाई जायेगी विशेष तौर पर – अतः यंहा तक का आवष्यक सफर विशेष पहले केवल और केवल आप को ही पूरा विशेष करना हैं – “ विधि ” निरन्तर आप पर अपनी निजी नज़र विशेष बनाये रखे हुऐ आप के साथ विशेष हैं वैधानिक प्रमाणिक तौर पर .....!     

       और जो आत्मा इसे जीते जी प्रत्यक्ष कमाता हैं वही “ धर्म ” हैं और कमाने वाला “ धर्मात्मा ” – न कि गद्धिधारी भिखारी विशेष अथवा ब्यान करने वाला महान-महान उपदेशक विशेष .....! यही प्रमाणिक “ धर्मात्मा विशेष ” ही प्रत्येक काल-स्थिती विशेष में “ सत्य ” की सच्ची परिभाषा विशेष प्रभाषित कर सकता हैं जो निरन्तर बाहरी रूप से आत्माओ की सोच विशेष के अनुसार प्रभावित हो कर बदलती विशेष रहती हैं इस मृत भू लोक विशेष में .....!

 

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