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23.“अमृत-नाम
भोजन “ हरि ” (केवल
रागमई
प्रकाशित
आवाज़ विशेष)
देई ।
अरब मधे
कोई बिरला लेई
...! ” “ सतगुरू
नू सभ कोई
वेखदा – जेता
जगत संसार । डिठया
मुक्त न होवई –
जे कर शब्द न
करे विचार ...! ” या
तो यह लिखत
झूठी हैं या
ये इकठ्ठी हुई
रंग बिरंगी
मत-धर्म-विचार
विशेष-विशेष
रूपी महान-महानतम
गुरू-सतगुरू
डेरे-आश्रम
इत्यादी रूपी
“ भीडें
विशेष-विशेष ”
...! कोई पानी को
अमृत साबित
करने में मिट
रहा हैं तो
कोई लफज़ों
विशेषो को नाम
बता कर बांट
रहा हैं ...। क्या
नाम अथवा अमृत
कोई भौतिक
पदार्थ अथवा
सम्पदा विशेष
हैं जिसे
बांटा जा सकता
हैं अथवा
पिलाया या
दिया जा सकता
हैं ... ? इसका
फैंसला विचार
से प्रत्येक
आत्मा विशेष
को स्वंय ही
केवल अपने हित
के लिये अवश्य
करना होगा
निजी रूप से
प्रत्येक काल
में । सब कुछ
अमृत-नाम अथवा
हरि के सिवा
कुछ है ही
नंही तो फिर कब-कहां
और कैसे
देने-लेने की
बात
प्रत्यक्ष हो
गई ...? यह केवल
हरि का विषय
हैं जो केवल
हरि द्रारा
हरि तक ही
तकनिकी रूप से
सिमित विशेष
हैं । जब कोई
आत्मा विशेष
अपने
प्रत्येक
वैचारिक विशेष
विषय को भी
व्यवहारिक
रूप से हरि के
विषय में
संपादित विशे,
कर देती हैं –
प्रत्येक पल
विशेष
नियोजित रूप
से – तो वह
आत्मा इस
नाम-अमृत को
सूंघने-चखने
अथवा देखने
रूपी अनुभव
विशेष करने
लगती हैं –
धीरे-धीरे
व्यवहारिक
रूप से
प्रत्येक
पल-लगातार
आत्मिक तौर पर
...! और उसे इस
मुकाम तक
पहुंचने के
लिये अनन्त काल
के अनन्त
जन्मों का “ पुरूषार्थ
विशेष ”
तकनिकी रूप से
कमाना विशेष
पढ़ता हैं –
लगातार बिना
रुके निरन्तर
चिन्तन विशेष
करते हुऐ बड़ी
ही सावधानी
विशेष से – तब
कंही जा कर
उसे इस अनमौल
आवश्यक “ आधार ”
विशेष का भान
होता हैं
तकनीकी रूप से
“ आन्शिक तौर ” पर
और आप हो की
दोड़े चले जा
रहे हो सतरंगी
भीड़ विशेष के
पीछे और मान
कर बैठे हो कि
शक्लो विशेषो
को देखने अथवा
सुन्ने-गाने-नाचने
से ही आप को इस
की अनुभूती
विशेष हो
जायेगी और उन
महानों की
दृष्टि विशेष
पड़ते ही आप
के अनन्त जन्मों
के कुकर्म सभी
विशेष
महान-महान हवा
हो जायेगें और
आप सदा के
लिये मुक्त
विशेष हो
देवता-देवी बन
वेकुंठों में
वास करने लगोगे,
सदा के लिये ...?
प्रत्येक
काल में सत्य
के पक्ष में
कभी भी भीड़
एकत्र नंही
हुई – त्रेते
में राम के
पीछे बन्दर और
भालुओं की भीड़
थी तो द्वापर
में झूठ के
पक्ष में
डेओढ़ी सेना
थी और केवल एक पार्थ
विशेष को
मनाने हेतु “ गीता
विशेष ”
प्रत्यक्ष
करनी पड़ी तो “ रोवह
पाण्डव भये
मजूर – जिन के
स्वामी रहते
सदा हदूर ” का
क्या तकनीकी
भावार्थ हैं
स्वंय ही
विचार किजिऐ ...? कल
में तो सच की
ऐसी पक्की
महान कब्र
प्रत्यक्ष की
जाती हैं कि
उस पर कफ़न भी
अरबों का
चड़ता हैं और
फिर उस पर “ मन
रूपी शैतान ”
अपनी
महान-महान
अनुरागी
आत्माऔं को ले
कर ऐसा ताण्डव
रूपी नृत्य
विशेष करता
हैं कि उस का ये
सत्य रूपी
कफ़न भी बड़े
ऊचें दामों पर
बिकता हैं “ सत्यमेव
ज्यते ” के रूप
में ...! सत्य-झूठ
का सम्बंध जीत
अथवा हार से
तो कदापी भी
नंही ही हैं
प्रतयेक काल
में ...! जीत और
हार का सम्बंध
केवल
कमाई-ताकत
अथवा साधनों की
अधिकता या कमी
से हैं अर्थात
विजय का
सम्बंध केवल
संसाधनों
रूपी कमाई गयी
ताकतों की
अधिकता से ही
स्थापित होता
हैं ...! कमी को
हार का सामना
स्वीकार करना
ही पड़ता हैं
प्रत्येक काल
में न चाहते
हुऐ भी, कितना
ही “ सत्य
परायण ” होते
हुऐ भी – हज़म
विशेष करने के
लिये मज़बूर
होना ही पड़ता
हैं ... !
सत्य-असत्य का
सम्बंध केवल
और केवल सुख तथा
दुख से ही
जुड़ा हुआ हैं
प्रत्येक काल
में तकनीकी
रूप से । कलयुग
में जब
प्रत्यक्ष
जन्म 25% से घटता
हुऐ ज़ीरो की
तरफ बड़ने
लगता हैं तब 75%
से अधिक
नतिज़ा पिछले
जन्मों के
कर्मो-कुकर्मो
का आवश्यक फल विशेष
होता हैं –
जिसे
प्रत्यक्ष
जन्म के ज़ीरो
से 25% तक के व्यवहारों
का मान लिया
जाता हैं ... ! यही
सबसे बड़ा
भ्रम अथवा
धौखा विशेष
हैं आत्मा के
लिये । इसे
बड़ी बुद्धी
से विचारना
तथा सावधानी
विशेष से धारण
करना अति
आवश्यक हैं
प्रत्येक
प्रमार्थी
आत्मा विशेष
के लिये
लगातार
सावधानी
वरत्ते हुऐ । अर्थात
झूठ-छल अथवा
चालाकी-धोखे-आलस
का नतिजा कभी
भी सुख-साधन
नंही हो सकता ... ! फिर
“ कल ” में तो
यही साबित होता
आया हैं ... ! इस का
कारण हैं
पिछले जन्मों
में कमाया हुआ
“ सत्य ”-नतिज़े
के रूप में
प्रत्यक्ष
व्यवहारिक
रूप से प्रगट
हो कर कोई
(विधि) बड़ी
चालाकी से
निरन्तर
मिटाता चला जा
रहा हैं और “ ज़ीरो
होते ही प्लस
के ” – केवल
माईनस तुझे
नर्को की तरफ
धसीट कर ले
जायेगा “ कोई ”
विशेष बड़ी
चालाकी से ... ! और
फिर शुरू होगी
तेरी ऐसी
तड़पने वाली
महान “ दास्तान
” जिसे तू
भुलाये बैठा
हैं ... ! तू
प्रत्यक्ष
जन्म में भी
झूठ-छल-धोखे
और ब्लातकार
द्वारा लगातार
दौड़-दौड़ कर
कमाने में ही
निरन्तर घौर
व्यस्त विशेष
हैं – ये
दृढ़ता से
मानते हुऐ कि
इन सभी का फल
अथवा नतिज़ा
विशेष तो
सुख-संसाधन ही
साबित हो रहे
हैं ... ! एक
भीड़ विशेष रंगीन
इन्द्रियों
की हैं जिन के
पीछे आत्मा दौड़
रही हैं सत्य
अथवा सुख की
तलाश में ... ! मन
लज्ज़त का
आशिक इन्द्रियों
का गुलाम हैं
और इन विकृत
अभावों को सुख
मानते हुऐ
बुद्धि के
ज़रिऐ आत्मा
को प्रभावित
करता रहता हैं
निरन्तर ... ! इसी
कारण देखने-सुन्ने-गाने-नाचने
को जीव मुक्ति
समझने लगता हैं
– यही मन की
सूक्ष्म
प्रभावित चाल
विशेष हैं, आत्मा
को ठगने हेतु ... !
और ज़ीव इन इन्द्रियों
के पीछे चलता
हुआ केवल बाहर
ही बाहर भटकता
हुआ अपना
अनमोल जन्म खो
देता हैं ।
बाहर केवल मन
इन्द्रियों
के द्वारा
जानकारी विशेष-विशेष
उपलब्ध होती
हैं –
किताब-गुरू
रूपी “ प्रमाणिक
” जानकारो के
द्वारा न कि
व्यवहारिक
अनुभव तकनिकी
रूप से ... ! “ घर ही
में अमृत
भरपूर हैं –
मनमुखा स्वाद
न आईया ज्यूं
कस्तूरी मृग न
जाणे – भृमदा
भृम भुलाईया ”
अर्थात
अमृत-नाम इस
घट यानी के
शरीर रूपी घर
में ही भरपूर
लबालब
प्रत्यक्ष
उपलब्ध विशेष
हैं तकनीकी
तौर पर । पर
मन-इन्द्रियों
के
स्वादों-आलसों
में फंसी लुभायमान
आत्मा विशेष
मनमुखी, इस के
स्वाद से सदा
ही वंचित रहती
हैं । क्योंकि
वो तो कस्तूरी
की सुगन्ध की
दिवानी,
अन्धी, मृग
आत्मा की
भांति, उस की
तलाश तो झाड़ियों
रूपी विभिन्न
धर्म-मत
संसारों में
ही करती रहती
हैं, “ पूरे
जीवन भर ” – इस
सत्य से
अन्जान उसे
इसके
स्वाद-सुगंध
से सदा ही
वंचित रहना ही
पड़ता हैं –
क्योंकि ये
सुगंध भरा
खज़ाना तो
उसके स्वंय के
ही नाभी रूपी
दसवें द्वार
विशेष में
प्रत्यक्ष
उपलब्ध विशेष ही
रहता हैं ... ! “ जानकार
” के
दर्शन-उपदेश-गायन-नृत्य-उच्चारण
इत्यादि महान-महान
धार्मिक कर्म
काण्ड़ों
विशेषों से इस
नाम-अमृत का
अनुभव कभी भी
नंही होता किसी
भी प्रकार तथा
काल में
किन्ही भी
कारणों
इत्यादि हेतु
केवल
नाकरात्मक
तकनीकी रूप से
अवैधानिक ... ! “ काहे
रे बन खोजन
जाई । सरब
निवासी सदा
अलेपा तोहे
संग समाई ।।
पुष्प मध
ज्यूं बास बसत
हैं – मुकर में
जैसे छाई ।
ऐसे ही हर बसै
निरन्तर “ घट ” ही
खोजह भाई ।। ”
अर्थात सुख अथवा
सत्य की तलाश
तुझे बाहर
नंही केवल
अपने स्वंय के
भीतर ही करनी
हैं
लगातार-निरन्तर-बिना
रुके । जिस की
पहली सीड़ी
हैं “ यम तथा
नियम ” की । इस
सीड़ी पर अपने
पैर विशेष
दृढ़ किये बिना
तू दूसरी
सीड़ी अर्थात
अपने अन्तर
रूपी आवश्यक
दुर्लभ
प्रयोगशाला
में प्रवेश
करना तो दूर
रहा, तू पैर भी
नंही रख सकता
इसे गांठ बांध
ले ... ! “ नउ दर ठाके
धावत रहाये –
दसवें निज़ घर
वासा पाये । औथे
अनहद शब्द
वज़े दिन राती
– गुरमती शब्द
सुराणवियां
।।” अर्थात “
कल ” में जो
क्रिया विशेष
उलटी हो चुकी
हैं इस दुर्लभ
आवश्यक जीवन
रथ विशेष की –
उसे सीधा
विशेष करना
होगा अपने
निजी दुर्लभ आवश्यक
लाभ विशेष
हेतु अर्थात
अमृत-नाम तक
पहुंचने के
लिये निरन्तर
व्यवहारिक
प्रयास विशेष
करना होगा
आत्मा द्वारा
मन पर अंकुश
विशेष लगाते
हुऐ ज्ञान का ... ! तब
मन रूपी लगाम
द्वारा
इन्द्रियों
रूपी घोड़ों
को नियन्त्रित
किया जा सकेगा
और तब ओर केवल
तब ही आत्मा
मन को साधन
बना पोज़िटिव
रूप से आगे
बड़ेगी – अपने
को बाहरी नौ
द्वारों से
मुक्त करा कर
दसवें द्वार
की ओर ... ! अनन्त
लम्बे और
व्यवहारिक
प्रयासों
विशेषो के बाद
ही अनन्त
जन्मों की
मेहनत रंग
लायेगी और
तुझे ये
क्षणिक अनुभव
व्यवहारिक
विशेष होगा और
तब तू
अमृतधारी
अथवा गुरमुख
यानी के
नामधारी कहलाने
में समर्थ
विशेष होगा ... !
इस सत्य को
पहचान कर आप
देखो स्वंय को
कि आप इस क्रिया
विशेष में
कहां पर खड़े
हों और क्या
कर रहें हों –
आप को अपनी
स्थिति विशेष
का ज्ञान हो
जायेगा और साथ
ही निश्चित
नतिज़ा विशेष
भी अनुभव होने
लगेगा कि आप
ने अब तक क्या
खोया हैं और
क्या-क्या
प्राप्त करने
के लिये दौड़
विशेष महान-महान
लगा रहे हों ... ! जिस
भीड़ ने अपने
भले तथा
सुरक्षा हेतू
संसद का
निर्माण कर
सासंद
नियुक्त किये
हैं उन्ही महानों
ने एक ऐसा
सिस्टम बनाया
हैं जो दिन
रात निरन्तर
सभी भीड़ों
विशेषो का
शोषण तथा हनन
विशेष करता
हैं और सब से
अधिक असत्य और
ब्लातकार का
अनुभव भी इसी
महान संसद के
सांसदों के
बीच ही होता
हैं ... ! खरबों
खर्च कर ऐसी
मशीनों-शस्त्रों
का निर्माण
किया जाता हैं
जो केवल
मनुष्य को
मिटाने तथा
प्रकृति
आवश्यक को
हज़म विशेष
करने हेतू ही प्रयोग
विशेष में
लाये जाते हैं
और आवश्यक आधारभूतिक
आवश्यकताओं
के लिये कीमत
भारी वसूल की
जाती हैं ( हवा-पानी-बिजली-ईंधन-शिक्षा-रोजगार-स्वास्थय-औषधी-यातायात
इत्यादी हेतू
)। इस महान
भीड़ का एक ही
दावा हैं
लोक-तन्त्र तथा
आज़ादी और इन
नतिज़ों में
सभ्यता को
सभ्य साबित
करने में ही
निरन्तर घौर
व्यस्त विशेष
हैं ये महान
महानूभाव जिन
का आधारभूतिक
सत्य केवल और
केवल घूस
अर्थात
मर्यादाहीनता
ही हैं ... !
पशु-परिंदो-जंगलों
का सुंरक्षण
और अरबों टन
रोज का
मांस-लकड़ी-जल(स्वीमिंग
पूल-खेल
विशेष-विशेष)-ईंधन
का वैधानिक वितरण
“ सांसद की
महान मोहर के
निहित ” ... ! इस
भीड़ महान के
पीछे चल कर आप
स्वंय को
सुरक्षित
अथवा मुक्त
विशेष समझ
रहें हैं यही
मन का सबसे
बड़ा धौखा
महान विशेष
हैं ... ! इस रंगीन
भीड़ की “ मरीचिका
” विशेष
अच्छे-अच्छे
बुद्धिमान
विशेषज्ञों को
भी लुभावित कर
रही हैं और
आँख मूंद इस
के पीछे चलते
हुऐ अपने अनमौल
मनुष्य जन्म
से हाथ धोते
जा रहे हैं ... ! इसलिये
तनिक ठहरो और
सावधानी से
विचारो ये
विचार भी आप
तभी तक कर
सकते हैं जब
तक आप के
प्राण चल रहें
हैं और आप
स्वस्थय
विशेष हैं और
आप के पास
आवश्यक साधन
विशेष भी
प्रत्यक्ष प्रचुर
मात्रा में
उपलब्ध विशेष
हैं ... ! इन के
अभाव में चलना
तो एक तरफ रहा
आप का इस बारे
में विचार
करना भी केवल
अपराध ही
साबित होगा ... ! ![]() |