“ गुरबाणी कीर्तन ”

34. डिस्ट्रैकशन

( अथवा पथभ्रम )

            यह लफज है तो छोटा पर इसका अर्थ बहोत व्यापक है । इतना कि पूरी सृष्टि उस मे समा जाए पर फिर भी उस में इन घिनटी अर्थ़ात अनन्त जैसे स्मर्था विशेष बाकी बच ही जाती है...। यानी के क-ख से लेकर ण खाली तक ही रस मे केवल बगले ही झाकने के काबिल बचता है। मन- वचन- ईन्द्रियां- भाव- व्यवहार- इच्छायें- कामनायें- नजरियें- सोच- कल्पनायें- सुखसाधन- दुख- दर्द- रोग- सम्पति- जप- तप प्रार्थनायें- योगिक क्रियाऐं- ध्यान- समाधी- मत- धर्म- कर्मकाण्ड- शलोक- मंत्र- गद्धियां- दर्शन- मुक्ति- जल तीर्थ- मूर्तियां- भजन गाना- सुनना- राग- नाचना- कूदना- झूलना- सुनना सत्संग- सत्संग कथा कीर्तन करना- बड़े बड़े लंगर भण्डार- मृतको के जन्म मरन दिवस तमाशा- पैगम्बर- औलिये- फकीर- सिदधीयां चमत्कारो की इच्छा- इन के पीछे भागना- कामनाये करना अनहोनियो की- कबरो पर चढावे- मन्नतें भोगना- ग्रहो पत्रियों में उपाये खोजना बचने के- बिना पुरुषार्थ सुख की कामना- चोरी- छल- धोखा- झूठ- कपट मे सकून की तलाश- उपलब्धियो को सच जानना- विदवता- शब्द जाल में फंस मान सम्मान के पीछे भागना- एवार्ड- खोजो मे उलझना- मिट्टी पत्थर जल का संगृह- कबरो- मम्मियो- लाशो की पूजा अर्चना मे मनुष्य जन्म को डुबोना– चाँद सूरज गृह ग्लैसियो स्पेस में राहत मुक्ति की तलाश – समुंद्र मे जीवों साधनो भोजनो को पाने में भटकना- ग्रन्थो पोथियो की पूजा अर्चना- गोल गोल घूमना- पत्थरो फलैगो को चूमना माथा फोढना जैसा कर्म काण्ड बार बार दोहराना- लफज रुपी नामो- जल- बताशे शलोक मन रुपी अमृत को सच जान भ्रमों मे अपने सहित पूरी मनुखा जाती को पथभ्रषट करना- वगैरह-2 ही है...। जो चला गया अथार्त जिसकी धडकन बंद हो गई उसका वर्तमान काल से कोई कुछ भी समबनध नही बचता- वो तो केवल भूत-प्रेत अर्थात भूत काल ही है- प्रत्यक्ष से उसे बाँधना केवल मूर्ख्रता ही को साबित करना है– फिर वो जड यानी पत्थर- पानी- हवा- अग्नी है वो केवल प्राकृती और जीवन की आवश्यकता तक ही सीमित विशेष है उस से आगे कुछ भी नही- उस की पूजा अर्चना कर्म कांण्डो को धार्मिक साबित कर धर्मात्मा सन्यासी वन मुक्ति की कलपना थी केवल स्वंय को महामूर्ख साबित करना ही है...ॽ सभी तीर्थ महान चले गयो की भूतिया पहचान- अउभूती के सिवा और कुछ भी नही है। उन के उपयोग किये गए साधनो विशेषो की पूजा- अर्चना– जलूस गाने-नगाडे उछल कूद केवल स्वंय को पागल साबित करने जैसा निकृष्ट कृत्य विशेष ही है... ॽ

आप कितने भी काबिल स्मर्थ क्यो न हो- प्रत्यक्ष को जानने समझने मे भी केवल अधूरे ही साबित होते है... ॽ तो फिर भूत भविष्यो को जानना तो एक तरफ रहा- इन्हे विचारने मे भी आप केवल अपंग ही साबित होते हो- यह सब आप की खोजो– सिधियो से साबित किया हुआ भी समय काल परस्थितियो मे केवल झूठ- मिथ ही साबित होता है और आप को मजबूरन सभी कुछ फिर से बदलना ही पढता है निरंतर बिना रुके... ॽ जब की हवा- जल- वायू- पृथ्वी- नक्षत्र गृह वगैरह स्थिर दिखते है- लेकिन सच तो यह है कि वो भी न तो स्थिर है और न ही टिकते- टिकाऊ है बल्कि एक घडी ऐसी भी आती है जब वो भी लुप्त ही हो जाते है... ॽ फिर भी आप की क्या बिसात है कि आप भूत-भविष्य की योजनाऐ    बनाये- उन्हे दोनो हाथो से थामे बुरी तरह से जक़डे बैठे है वो भी प्रत्यक्ष उपलब्ध को पूरी तरह से भुलाये हुऐ स्वंय को ही घटाये-मिटाये जा रहे है वो भी केवल नतीजे स्वरुप “ खुवार ” विशेष होने के लिये... ॽ

बिना पुरुषार्थ के जीवन जीने का आत्मा के लिये कोई मोल नही- फिर पुरुषार्थ तो करे पर सत्य से परहेज करते हुए– उस से निरन्तर दूरी बनाये हुए– झूठ– छल- कपट में लिप्त हो आनन्द अनुभव करे– तो फिर समझ लो कि केवल घौर नरको दुखो का ही समान विशेष बटोर रही है आत्मा विशेष... ॽ संसारी सत्य पुरुषार्थ को सृष्टि से शेयर करे अर्थात केवल देना ही महा धर्म विशेष है और बटोरना केवल स्वंय से ही धोखा करना है..। आत्मा स्वंय के लिए ऐसा सिदध जान महाधर्म को निश्चित रुप से निरन्तर व्यवहारिक अपनाये तथा जमाखोरी से केवल परहेज ही करे तो यही उत्तम मार्ग विशेष है परमार्थी आत्मा विशेष के लिये....?

            सत्य की खोज किसी तीर्थ– मतधर्म- जंगल- सन्यास- डेरो- गदधियो- गुरुदवारो- मंदिरो- चर्चो- मस्जिदो ईत्यादि धार्मिक स्थलो कर्म काण्डो मे करना तो मनुष्य जन्म की  केवल तोहीन मात्र ही है... ॽ सत्य की तलाश अपने मन से करे- अपने व्यवहार को जाचें- अपनी जुबान को कुरेदे- अपनी इन्द्रियो के कृत्यो  पर जरा गौर फरमायें- यह सत्य विशेष तो केवल पूरी तरह से इन्ही मे छुपा दबा बैठा सिसक रहा कब्र विशेष के रूप में- मुक्त होने की फिराक मे- और आप है कि कही और ही दौड भाग– मेहनत मुश्कत कर पसीने पसीने हुए जा रहे है- व्यावहारिक तौर पर लगातार कीमती दुर्लभ प्राणशक्ति खर्च करते हुए-  जिसका तो यह भी भरोसा नही है कि कब यह जिन्दगी तुरंत खत्म विशेष हो जाएगी।

             घर ही मह अमृत भरपूर है मनमुखी जीवो को उस का स्वाद चखने को नही मिलता- जिस तरह से “ कस्तूरी सुगन्धित ” हिरन की नाभी विशेष में सदा प्रत्यक्ष विदधमान विशेष रहती है पर वो उस मदमस्त कर देने वाली सुगन्ध को बाहर जंगल ही में झाडियो में उलझता- भटकता- भरमो के जालो विशेषो मे स्वंय को खोता डुबोता ढूढता- तलाश करता हुआ उस के अभाव –वियोग मे अपने पूरे जन्म विशेष को ही गवां देता है सदा के लिये.... ॽ ऐसे ही मनुष्य दुर्लभ जन्म विशेष में प्रगट हुई आत्मा विशेष तो पूरे संसार रुपी सृष्टि को संग्रह विशेष करने में ही निरंतर वयस्त बनी रहती है- जो केवल उसके स्वंय के हेतु भी केवल बिख का ही काम विशेष करती है- जो उस की पूरी स्वांस रुपी पूंजी विशेष को ही सदा के लिये च़ट हजम विशेष कर जाती है.... ॽ शब्द- नाम रुपी अमृत विशेष को दरकिनार कर उसे भुलाना तथा कूड रुपी बिख को एकत्र करने मे ही रचना- बसना- ओत प्रोत होने का तो केवल यही एक नतीजा- मुआवजा विशेष प्राप्त होता है - सदा के लिए घौर महा नरको मे बसना..... ॽ कोई विरली आत्मा विशेष ही शब्द- नाम रुपी गुरु (मूल सत) की अहमियत को समझती-विचारती है और उसी की चाहत- आशकी में स्वंय को निरन्तर मिटाती रहती है अनन्त कल्पो से तभी उसे इस की कीमत का अहसास विशेष होता है और उसे केवल अपने अंतर में ही शब्द- नाम- अमृत (मूल सत) का दीदार विशेष होता है– सुनने के ढंग में- सुगंध के रुप में – अनन्त रागो की तरह से – चका चौंद होते हुए – जो कभी लफजो- पदार्थो में न तो विचारा जा सकता है न ही कभी भी बयान किया जा सकता है.... ॽ फिर देने-लेने की कौन सी विकृत रुपी कल्पनाओ में अपने दुरलभ आवश्यक जन्म विशेष को डुबोने में निरन्तर लगे विशेष हुए हो महान पुरुषार्थियो- धर्मातमाओ.... ॽ शब्द ही नाम है- शब्द ही अमृत है और केवल शब्द ही सत्य रुपी गुरु विशेष भी है-जिस का कोई भी आकार –रंग- भेद नही है- न ही वो किसी जून या जन्म में आता है ( पर ऐ से जैड सभी कुछ केवल वही एक शब्द विशेष ही है वो गंध– दुर्गंन्ध– सुगन्ध में भरपूर समाया हुआ है यह तो केवल आप ने ही निश्चित विशेष करना है कि आप ने उसे विकृति-अपंगता-जड़-प्रकृति में तलाश करना है या किसी “ सुगंध दुर्लभ ” में - जो केवल आपके मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार रूपी विचारों में ही भरपूर – लबालब प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष है - निरंतर संकलित रूप में .....? फैसला आपका निजी विशेष है जो केवल आपके ही अंतर में दफन विशेष है .....? फिर दल्ले-दलालों का इसमें क्या काम.....?

             केवल आप का सही निर्णय ही आपको शब्द के आकर्षण में आपको खींचता - बांधता है - जो आपको अपने मूल विशेष से परिचय विशेष करवाता है - जहां ना तो कोई सवाल है और ना ही कोई इच्छा- कामना तथा ना ही कोई जवाब है.....? फिर कैसी अशांति-कैसा -दुख-दर्द-रोग-अभाव -विकृति इत्यादि.....? केवल पूर्ण स्थिरता विराम-संतुष्टि-खामोशी -निश्चल ता ही शेष बचती है.....!

             इस मूल शब्द के अभाव में पूरा जगत-सृष्टि मानो ऐसे ही है जैसे किसी में काल रूपी महाभूत घुस गया हो और वह पागलों की तरह से तड़प-तड़प कर भटकता-दौड़ता-चिल्लाता-भाषण-सत्संग-कीर्तन इत्यादि करता नाचता कूदता-गाता फिर रहा हो.....?

             जो “ परम चेतन सत्ता ” अगम है -अगोचर है-जिसका ना कोई रूप-रेख है - ना जन्म मरण है -जो महा अदृश्ट है - जो निरंकार निरंजन है - जो महा अनंत गुणों से भरपूर ओतप्रोत है ( शब्द केवल एक छोटा सा महीन जर्रा विशेष ही है इस माह भंडारन रोशन विशेष अनंत विशेष का ) -जो केवल एक ही है जो किसी से नहीं बल्कि स्वंय से रोशन विशेष है.....! जो प्रत्येक महीन जर्रे विशेष के रूप में सदा वर्तमान विशेष है - आप उसे कैसे जप सकते हो - उसका कैसे ध्यान धर सकते हो - कैसे उसको बयान कर सकते हो - कैसे उसके गुण गा सकते हो.....?

             इस लिए आप का तो केवल खामोश हो जाने का ही अधिकार विशेष है और स्वंय के अंतर मन-ध्यान सिद्ध हो कर के - केवल उस एक का ही विचार रूपी निरंतर आशिक होना ही - अनंत महाकल्पों में आपसे उस को नोटिस करवाता है.....! और फिर वह आप को सुजाता-बुझाता आवश्यक बोध विशेष करवाता हुआ शब्द मार्ग विशेष में लाता है - तथा फिर वह आपको सदा के लिए इस “ अमृत कुंड ” में डुबो देता है .....! यही है शब्द रूपी पूरे महा समर्थ गुरु मूल विशेष का मार्ग जो केवल आप की अपनी सच्ची लगन रूपी महा पुरुषार्थ से ही - आपको अनुबोध कराता करवाने में समर्थ विशेष बनता है.....! जो केवल शब्द रूपी पूरे सच्चे महा गुरु मूल की निष्काम सेवा-अर्चना से ही प्राप्त-उपलब्ध विशेष होता है .....? जो केवल एक ही मार्ग विशेष निरंतर में अथक प्रयास विशेष से ही अनुभव में आता है.....? वो है “ सेवा सूरत शब्द चित लाये ” .....!

“ नाम-शब्द-अमृत (मूल तत) तिना को मिलिआ जिन को धुर लिख पाइया । ”

             गुरु साहिब लिख कर मार्ग बता रहे हैं कि जो आत्मा मनुष्य जन्म में पूरे गुरु शब्द मूल-सत-नाम-अमृत विशेष को निरंतर कर्मों-जिम्मेदारियों का पूरी ईमानदारी से ब्याज सहित भुगतान-भुगत-भोग विशेष करती हुई-स्वंय को प्रत्येक आवश्यक सीमा विशेष में बांधती-रखती हुई- “ महा पुरुषार्थ विशेष कमाती है ” ! केवल वही “ गुरमुख ” विरली दुर्लभ आत्मा विशेष कहलाती हुई “ महा अनंत काल ” में उस दुर्लभ-विरले भाग्य विशेष को प्राप्त होती है - जिस विरले दुर्लभ आवश्यक जन्म में ही दागा जाता है धुर से कि अब तू “ महा अमृत कुंड विशेष ” में डुबकी लगाने योग्य हो गई है.....!

             “ परम चेतन सत्ता ” विशेष -केवल यही -एक “ महा सत्य ” विशेष – ( जो तीनों कालों विशेषों में निरंतर प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष है) है । जिस तक पहुंचने की मर्यादा विशेष है :- सच ता पर जाणीऐ जिन ह्रदय  सच्चा होई । सच ता पर जाणीऐ जो सच धरे प्यार । सच ता पर जाणीऐ जा जुगत जाणै जिओ । सच ता पर जाणीऐ जा आत्म तीर्थ करे निवास । सच सभना होई दारू पाप कढै धोई । गुरु साहब फर्मा रहे हैं कि सत्य कभी फटता नहीं - कभी घटता नहीं - कभी कहीं भी जाता-आता नहीं - कभी भी मिटता नहीं -कभी भी बढ़ता नहीं - वो सदा निरंतर तीनों कालों विशेषो एक सार-स्थिर रहता है और केवल उन्हीं को विचारिक अनुभव बोध होता है जिन्होंने सच की कमाई विशेष की होती है .....? यह कभी भी सभी गलियों महीन जरो विशेषो में होता हुआ भी अनुभव में नहीं आता .....?  उसका बोद्ध केवल वही होता है जहां यह प्रचुर मात्रा विशेष में उपलब्ध होता है यानी कि आपके अपने अंतर में ही केवल दसवीं गली द्वार विशेष में .....! (नउ दर ठाके धवित रहाय – दसंवे निज घर वासा पाये + ओथे अनहद शब्द वजे दिनराती ) । और एक आप हैं कि ढूंढ रहे हैं इसे सृष्टि के प्रत्येक मंडल -पदार्थ-प्रकृति इत्यादि के जर्रे विशेष में .....? यह विकृत सोच रूपी निकृष्ट तलाश क्यों कर - कैसे कभी भी पूरी हो सकती है .....? घोर महा अनंत काल के कर्म -कांडों-धर्मो-मतों के बाद भी नतीजा तो केवल एक निश्चित ही है - आवश्यक रूप से “ निल्ल बट्टा भयानक तड़पने चींखने वाला सन्नाटा ” अर्थात दुख-दर्द-तड़प-चीख पुकारों से भरपूर लबालब घौर महा भयाव्य नरकों विशेषों के रूप में 

            कूड़ (कूड़ा सभ संसार) बोल मुरदार खाई अवरै नू समझावण जाई । मुट्ठा आप मुहाये साथै - गुरू साहिब लिख कर समझा रहे हैं कि - (मत-धर्म-नीति-सभा-स्टेट-मुल्क-कमेटी-पंथो-मार्गो ईत्यादियों के ...) ऐसा आगू जापै यानिके - (प्रधान-सभापति-गुरू-सतगुरू-इंचार्ज-नेता-हैड-लीड़र-भाई-पादरी-ब्राह्मण-मौलवी इत्यादि वगैरह-वगैरह बताये तथा महान-महापुरूष साबित किये जाते रहे हैं.....?

काचा धन संचह मूरख गावार ॥ मनमुख भूले अंध गावार ॥ बिखिआ कै धन सदा दुख होइ ॥ ना साथ जाइ न परापत होइ ॥ मनमुख भूले सभ मरह गवार ॥ भवजल डूबे न उरवार न पार  

चह जुग मह अंम्रित साची बाणी (केवल रागमई प्रकाशित आवाज विशेष)॥ पूरै भाग (केवल स्वंय के अथक परमार्थी पुरूषार्थ ) हर नाम समाणी ॥ सिध साधिक तरसह सभ लोइ ॥ पूरै भाग परापत होइ ॥ ऊतम ब्रहम पछाणै कोइ …..?  सच साचा सच आप द्रिड़ाए - आपे वेखै आपे सच लाए ॥

           हे मूल तत के सत रूपी अंश महापुरूष हर गुण गाई ले क्योंकि ऐ टू जैड़ सब सुपन समानयों (केवल एक तुझ भार-रहीत सत रूपी आत्मा विशेष को छोड़ कर .....! )  

 

“ ऐसा जग देखया जुआरी – सब सुख मांगे नाम विसारी । ”

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