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34.मुक्ति संसार
में जीव का
जन्म किसी
विशेष मकसद को
प्राप्त करने
हेतु ही हुआ
हैं । और यह मंजिल
उसे केवल
मनुष्य जन्म
में ही
प्राप्त हो सकती
हैं – वो भी
किसी विशेष
ढंग अथवा विधी
विशेष द्वारा
ही उस तक
पंहुचा जा
सकता हैं । जीव ने
संसार में
बहुत से सस्ते-आसान
तथा टिकाऊ
तरह-तरह के
ढंग प्रकार और
अजीब-अजीब से
उपाय विशेष
वगैरह बना-खोज
रखे हैं ...? इन
विशेष तरीके
तथा कर्म
इत्यादि पर
उसने पूरा
भरोसा ही नहीं
बल्कि पूरा का
पूरा यकीन
विशेष भी बना
रखा है तथा तो
अनंत मर्यादा
हीन कर्मकांड
विशेषो के बाद
भी सीधे प्लेन
द्वारा ठंडा
होता हुआ हज-तीर्थ
अथवा विशेष
चार धामों
विशेषण की
यात्रा पर
निकल पड़ता है
वह भी पूरे
परिवार सहित
मुक्ति
प्राप्त करने
हेतु .....! कहीं
पत्थरों को
मत्था रगड़ता
है तो कहीं से
भरे जलाशयों
में डुबकियां
लगाता फिरता
नाचता और गाता
है “ भजन-कीर्तन
” के नाम
पर - बहुत खुश
होता हैं -
अपने को मुक्त
विशेष जानकर.....! सभी
कर्म-कांडो
विशेषो के
महान-महान
दल्ले अर्थात
दलाल भी इसकी
मदद करते हैं - अपने
पेट से बंधे
होने की खातिर
- कि तू अब सभी
नर्को विशेषो-जुनो
और जन्म-मरण दुख
से सदा के लिए
छूट अथवा
मुक्त विशेष
हो गया है.....? कुछ
ने तो और भी
सस्ता-टिकाउ
शॉर्टकट
रास्ता खोज
निकाला है वो
भी सुपने में - नाम
की पर्ची कटा
लो - फ्री
में बांटा
तैयार होता है
घौर जहर में
बुरी तरह से
डूबे हुए महान-महान
एजेंटों अथवा
दलों द्वारा (खुद
डूब चुका ल़फ्जों
के जाल में
पूरी तरह से जकड़ा
हुआ - डूब
रहयों की नईया
पार लगाने का
संकल्प साबित
करने में लगा
है .....!) किसी को
खुदाई में
प्रभु मिलते
हैं - पुराने
से नंगे अपंग
अधूरे अंगों
के महान चमत्कारी
पत्थर में
फंसे हुए या
बिना धड़ के
लकड़ी की मुंण्डी
में बड़ी बुरी
तरह से अपने
को किसी तरह
तंगी समेटे-गुजारा
करते हुए
हैरान-परेशान से जो
केवल देखने भर
से ही चेतन जीव
को सदा के लिए
सभी बंधनों विशेषो
से आज़ाद अथवा
मुक्त विशेष
करा देते हैं .....?
कुछ तो बड़े
से पत्थर को
छोटे से कंकर
विशेष से मार कर
ही शैतान से
मुक्त विशेष
हो जाते हैं
और कुछ मुंह-सिर
मुंडा कर ही स्वंय
को समस्त सभी
प्रकार के
कर्म-कांडों
अपराधों से
निजाद
प्राप्त करने
में सफल हो
जाते हैं .....? कुछ
तो मुर्दा
शरीर के दर्शन
से ही स्वयं
को मुक्त कर
लेते हैं - वो
भी चेतन-स्वरूप
स्वंय के वजूद
को पूरी तरह
से भुलाकर .....! कुछ
तो अपने सभी
अभावों-अपराधों
को लेकर एक
पुतला विशेष
बनाते हैं और उस
पर रावण का
टैग लगा कर आग
लगा देते हैं
और स्वयं को
राम साबित कर
मुक्त हो
नाचते-गाते-कुदते
फिर से सुरा-सुंदरता
में पूरी तरह
से डूबने हेतु
तड़पते हुए डुबकियां
लगाने लगते
हैं .....! उससे यह
मार्गदर्शन
कोई नहीं लेता
की “ हे मूसन जो
इस प्रेम की
दम कैह होती
साट । रावण हुतै
सूरक नंही जिन
सिर दीनै काट .....!
” - अर्थात
हे मोमन अगर “ प्रभु
प्रेम मिलन ” दाम अथवा किसी
दर्शन-स्नान-मंत्र-गणना
ताबीज-तीर्थ-डुबकी-जप-तप-संयम-वर्त-नेम-चढ़ावे-कर्मकांड-लफ्जी
नामों-मीठे
शरबतों
इत्यादि
वगैरा-वगैरा
खोजे गए सस्ते
- टिकाऊ
उपायों
द्वारा किया जा
सकता होता तो
फिर इन
व्यापारो -
व्यवहारों के
लिए क्या रावण
के पास दाम की
कमी थी - उसका
तो घर ही सोने
का था फिर उसे
इस काम-दुर्लभ-आवश्यक
विशेष के लिए
अपने सिरों को
काट-काट कर
भेंट करने की
क्या
आवश्यकता
विशेष थी.....? हे
मूर्ख प्राणी
जरा इस विचार
पर जरा सी
मंदबुद्धि
द्वारा ही सही
- विचार खोज तो
कर.....! “ लंका गढ़
सोने का भया,
मूर्ख रावण
क्या ले गया ” तू तो केवल
इसी मंत्र का
जाप करता
दिन-रात इसमें
सिद्धि
प्राप्त करने
हेतु ही
निरंतर घौर
ताप में
निमग्न विशेष
है - फिर तेरा
क्या होगा कभी
कुछ सोचा भी
है हे चतुर –
विद्वान.....?
रावण
महा ज्ञानी
महापंडित था - ग्रहों
को बंदी बना
रखा था - दुनिया
का भविष्य
बताता था - वेदों
में श्रेष्ठ
था फिर भी ना
तो अपने कुटुंब
को बचा सका और
ना ही अपने
पत्री ही पढ़
सका.....! “ ईक लाख पूत
सवा लाख नाती - तिर
रावण घर दिया
ना बाती ” फिर भी तू
अपने वंश-परंपरा-जात-बिरादरी
पर अहंकार
करता हुआ
अधर्म पर अधर्म
- पाप पर पाप
कमाता हुआ
केवल एक पुतला
भर जलाकर ही
स्वयं को मुक्त
विशेष समझने
की भूल निरंतर
करता हुआ - अपना
कीमती जन्म
विशेष इन
व्यर्थ के
फोकट कर्मकांडों
पर ही फोकस
किए निठल्ला
बैठा हुऐ हैं.....!
कैसा
कमाल का
आविष्कार
किया हैं -
प्रकृति के
जड़ पदार्थ जल-पत्थर-कागज-लफ्ज-दर्शन-अग्नि
इत्यादि पूजन
जपन कर्म-कांड
इत्यादि से
परम चेतन के
अंश चेतन को
मुक्त कराने
का.....? अब तक की
सदी का सबसे
महान
अविष्कार
होने का पुरस्कार
तो कम से कम
तुझे अवश्य
मिलना ही चाहिए
?
संसार
अथवा परमार्थ
कमाने की पहली
सीढ़ी “ यम-नियम
” है जो
केवल तुझे ही
अपने
इमानदारी से
भरपूर निजी
पुरुषार्थ
द्वारा कमानी
है - वो भी
प्राणों के
चलते हुए और
यह प्राण भी
तुझे कब धोखा
दे जाएंगे - तू
कभी भी किसी
प्रकार से भी
इसे जान ही
नहीं सकता - फिर
भी लगातार
हैप्पी
बर्थडे मनाने
में ही तू व्यस्त
विशेष रहता है
- जबकि तू
जानता है कि
निरंतर तेरे
प्राण घटते ही
जा रहे हैं - इस
सच से आंख
मूंदे “ लगा
किस कुफफकड़े
सब मुकदी
चल्ली रैण ” ! जबकि इन दो
लफ्जों को
कमाने में
तुझे कितने जन्म
लग जाएंगे यह
तू स्वंय ही
अपने स्वंय के
हृदय में झांक
कर तय कर ले .....? क्योंकि
इसमें कितना
कचरा-गंद-इच्छाएं-कामनाएं-मोह-ममंता-माया
इत्यादि-इत्यादि
भरपूर भरा
विशेष है - यह
तो केवल तू ही
जान विशेष
सकता है - फिर
भी मुक्ति-नाम
विशेष की
कल्पना का
ध्यान विशेष
करना ......!
संसार
भी केवल सत्य
के व्यवहार - व्यापार
से ही उपलब्ध
विशेष होता है “ व्यापारी
सच व्यापार
करो ” ! परमारथ
का पुरुषार्थ
बाद में आता
है पहले संसार
का पुरुषार्थ
पूर्ण होना
अथवा कमाना
जरूरी है - अपनी
जिम्मेदारियों
का आवश्यक
पूर्ण भुगतान
होना आवश्यक
है इसीलिए
गृहस्थ आश्रम
को श्रेष्ठ
कहा गया है । इससे
आवश्यक
कर्मों का
भुगतान हो
जाता है लगभग “ आधा
” तो
क्या इसमें
मिलावट-घूसखोरी
या शॉर्टकट
चला सकता है - भूले
से भी नहीं - जैसे
सांप के डसने
से खेल में आप
की स्थिति
इतनी गिर जाती
है कि आप को
फिर से वहां
तक पहुंचने के
लिए - निरंतर
और कई चालें
इमानदारी की
चलनी पड़ती
हैं और फिर भी
आप खेल हार ही
जाते हैं
अर्थात इस
चक्कर मैं आप
जन्म ही हार
जाते हैं और
मृत्यु को ही
केवल गले से
लगाना पड़ता
है फिर इंतजार
शुरू हो जाता
है कि कब फिर
से मौका हाथ
लगेगा और आपको
मनुष्य जन्म
मिलेगा यह खेल
एक बार फिर से
खेलने का .....!
“ इस देही को
सिमरे देव - सो
देही भज हर की
सेव ।
भज गोविंद
भूल मत जाओ -
मानुख जन्म का
ऐही लाहो ।
इस पउड़ी ते
जो नर चूके - आई
जाइ बहुत बहुत
दुख पाईदा ।”
इस खेल
में “ समर्था
विशेष ” ने बहुत सी
डिस्ट्रक्शनस
भी रखी हुई
हैं जैसे छल-झूठ-कपट-घूस
इत्यादी
व्यवहारों-व्यापारो
से बहुत से
सुख-साधन मान-सम्मान
ताकत इत्यादि
बड़ी जल्दी
तेजी से उपलब्ध
होने शुरू हो
जाते हैं तो
आपको लगता है
कि आपने
मोर्चा फतह कर
लिया और आप
पहले से भी
कहीं बढ़कर
बड़े धड़ल्ले
से नंगे
तरीकों - प्रकारों
द्वारा इस खेल
को खेलने लगते
हैं और आपका
निजी
साम्राज्य बहुत
अधिक फैलता
हुआ समाज में
कुरीतियों को
फैलाता हुआ
लोगों जीवो को
गुलाम बनाने
लगता है और
फिर आप पूरी
सृष्टि का ही
भक्षण करने
लगते हैं .....! इस
चक्कर में आप
भूल जाते हैं
कि इस सृष्टि
का कोई
रचनाकार भी है
और वो क्या
इतना
मंदबुद्धि
अथवा मूर्ख है
कि उसे आपकी
इन धृष्तिताओ
का कुछ भी मान
ही नहीं है .....! तो
जान ले हे
चतुर महान
ज्ञानी यह सब
कुछ एक डिस्ट्रक्शन
विशेष है तुझे
कंगाल बनाने
हेतु - जो तेरे
प्लस के कर्म
नतीजों, जो
अनंत मनुष्य
जन्मों में तूने
बड़ी मेहनत
ईमानदारी से
कमाए - जमा किए
हुए थे ( जो कि
केवल और केवल
सत्य के ही
व्यापार
व्यवहारों से
तुझे उपलब्ध
हुए थे ) उन्हें
उस महा चलाक
खेल के मदारी
ने बड़ी
खूबसूरती से
तेरी इन इच्छाओं-कामनाओं-छल-कपट-घूस
कर्मकांडो और
मुक्ति के
तेरे महान-महानतम
अविष्कारों-खोजो
जिनका
व्यापार-व्यवहार
केवल झूठ से
ही उपलब्ध
विशेष हुआ, उस
पर तेरी अपनी
ही निजी चाहत
द्वारा खर्च
विशेष करवा
लिया - अब उसे
केवल तेरे
प्लस के खाते
का शून्य पर
पहुंचने तक का
ही इंतजार
करना है - तेरी
तेजी से हो
रही लगातार
उन्नति ये
साबित करती है
कि तू जल्द ही
इस शून्य के
मुकाम पर
पहुंचने वाला
है - फिर तेरा
असली झूट-छल-कपट
का सफर शुरू
होगा - यकीन से
जान ले इसमें
बहुत ही तड़प-दर्द
होने वाला है
और इसके अंत
का कोई भी
ठिकाना नहीं
है - घौर अनंत
महाकाल तक
केवल तुझे
चिलाना-तड़पना-कांपना
और नाचना-कूदना-गाना
विशेष ही है
अलग-अलग ढंग प्रकारों
व्यवहारों
द्वारा .....!
“ नच्चण –
कुद्दण – गावण –
मन का चाओ ”
मोटी बुद्धि
से ही जरा सोच
कर देख जो सुख-शांति
आत्मा को केवल
और केवल सत्य
कर्मों - व्यवहारों
से ही उपलब्ध
विशेष होती है
वह तुझे कैसे
खोटे-झूठे और
छल कपट से
भरपूर भरे हुए
व्यापार-व्यवहार-कर्म-कांडों
से प्राप्त
अथवा उपलब्ध
विशेष हो सकती
है.....? “ सुपने की
कल्पना में भी
केवल नहीं.....! ” तू तो लगातार
इस मनुष्य
जन्म रूपी जुए
विशेष को
हारता ही जा
रहा है.....!
“ यम –
नियम ” पूरा होने पर
ही तुझे सही
मार्गदर्शन
समझ में आ
सकता है वो है “ शब्द
गुरु - सुरत धुन
चेला ” केवल शब्द
रूपी गुरु
विशेष कि तुझे
पूर्ण तथा सदा
की मुक्ति
विशेष दिला
अथवा प्रदान
करा सकता है .....! शब्द
यानी आवाज –
धुन यानी राग
अर्थात केवल
रागमई आवाज जो
निरंतर स्वंय
में है - प्रकाश
अथवा अंधेरे
को प्रकाशित-प्रशस्त
करने वाला
दिव्य परम
चेतन प्रतिबोध
- जो आत्मा को
अंदर तक चीर
जाता है - ऐसा
सम्मोहन जो
बढ़ को भी
बहुत पीछे
छोड़ देता है - ऐसी
सुगंध जो बोध
से भी बहुत परे
हैं - मिलकर एक
ऐसा आकर्षण
प्रत्यक्ष
करते हैं कि आत्मा
चेरी बनकर
आकर्षित हुई होती
हुई इस शब्द
रूपी गुरु में
पूरी तरह से लीन-डूब
जाती है जैसे
लोहा मैग्नेट
में झट से
चिपक जाता है
फिर खींचने पर
भी उसे अलग
करना असंभव है
क्योंकि
आकर्षण रूपी
मैग्नेट बहुत
बड़ी महा अनंत
क्षमता का है .....!
उस वक्त आत्मा
सच में अंधी
बहरी हो जाती
है उसकी समस्त
सोच कफूर की
तरह से उड़
जाती है फिर
कुछ भी होना
बाकी नहीं रह
जाता .....!
“ कर्म धर्म
पाखण्ड़ जो दी
सै – तिन जम
जगाती लूटै ।
निर्बाण
कीर्तन (शब्द
गुरू केवल)
गावह करतै का –
निमख सिमृत
जित छूटै ।। ”
और यह
शब्द रूपी
पूरा गुरु-सतगुरु-मार्गदर्शक
तुझे केवल
स्वंय के ही
निज दर्शन से
प्राप्त होना
संभव है - वो भी
केवल स्वंय के
ही निज स्वरूप
उपलब्ध विशेष
में .....! वो भी
केवल तभी संभव
है जब तू इस
मार्गदर्शन
पर पूरा खरा
उतरे अर्थात “ नव
घर ठाकै धावत
रहाये – दसवें
निज घर वासा
पाये । ओथे
अनहद शब्द वजै
दिन राती –
गुरमती शब्द
सुझाणविया.....! ” अर्थात स्वंय
के शरीर के नो
धरो-दरवाजों
में दौड़ना
बंद कर - केवल
गुजारे मात्र
की ही
प्रविष्टि तक
समय को सीमित
कर - फिर दसवें
घर पर अपना
अधिकार साबित
कर - फिर यकीन
जान तुझे भी
तुझे तेरा निज
गुरु-सतगुरु
रूपी असली मार्गदर्शक-आधार-साधन “
अनहद शब्द
रूपी
प्रकाश-सुःसुगन्ध
से भरपूर असली
खस्म विशेष
उपलब्धहो ही
जायेगा – एक
राग – निर्बाण
(स्वंय में
निरन्तर )
किर्तन जैसा .....!
”
केवल
आंख बंद करने
से तो रास्ता
भी नहीं सूझता
फिर उस महा
अनंत को तो
कैसे सूंघ-देख
लेगा “ आँख मीच मग
सूझ न पाई –
ताही आनन्त
मिले किम भाई
। ”
ये यह
मार्ग आत्मा
रूपी स्त्री
का - सत्य रूपी
खसम विशेष से
मिलने का - दुर्लभ
आवश्यक
मनुष्य जन्म
विशेष ही है - जो
आदि से अनंत
तक सदा
निश्चित है ।
शेष सभी कुछ
केवल व्यर्थ
का ढकोसला-कुफ्फकड़ा
ही है । यह
रास्ता केवल
एक सच्ची
आत्मा - सच्ची
आशिकी से ही
पूरी तरह से
तय कर सकती है - इसमें
किसी का भी - कुछ
भी योगदान
नहीं के जैसा
ही है । इसलिए
अपने को हर
रोज खोज अपने
ही मन में सदा
लगातार अपने
ही मन की
क्लास विशेष
ले बार-बार अलग-अलग
ढंगों-प्रकारों-जानकारियों-दलीलों
से तभी तुझे
अपने अंदर में
अपनी ही डूबी
हुई सच्चाई
अनुभव में आनी
शुरू होगी “ बंदे
खोज दिल हर
रोज - ना फिर
परेशानी माही
”। मन
समरथा का अंश
विशेष है - यह
लगातार तुझे
भ्रम में रखता
जाएगा - बार-बार
डिस्ट्रेक्शन
के रूप में
तुझे शॉर्टकट-ऑप्शंस
प्रत्यक्ष
करता हुआ । सीधा-सीधा
जान ले कि
आसान या छोटा
जैसा मनुष्य
जन्म में
आत्मा के लिए
कुछ भी नहीं
रखा अथवा बचा
है - क्योंकि
यह सब कुछ खो-
गवा चुकी है
अपनी अजीब-अजीब
चिकनी चुपड़ी-चतुराईयों
में .....! केवल
निरंतर सच्चा
पुरुषार्थ
रूपी कुदाल ही
तेरा एकमात्र
साधन विशेष
उपलब्ध बचा है
.....!
धर्म
केवल स्वयं का
स्वयं से
जुड़ना अथवा
उस तक पहुंचने
का साधन मात्र
है ना कि
अलग-अलग भाषा-वेषो-रिवाजों-सोचो-कर्म-कांडो-किताबों-मंत्रों
तीर्थो-परमात्माओं
का झूठा-नकली-जमाघड़ा-यह
तो केवल एक
सुंदर-मीठा-सस्ता-टिकाउ
डिस्ट्रेक्शन
है - जो इस वेफर
में लिपटा हुआ
पेश होता है
कि धर्म के
अलग-अलग मार्ग
सभी उस तक ले
जाते हैं - परंतु
सच तो यह है कि यह सब
अलग-अलग मत
धर्म केवल
दंगा-कत्लेआम-लूटमार-चढ़ावे
पर जुगाली और
नंगी अय्याशी-बलात्कार
का सुलभ और
बहुत ही चीप
सा साधन विशेष
है जो आज से ही
अपनी मंशा-काबिलियत
को निरंतर
पूरी तरह से
साबित करता आ रहा
है, फिर भी मन
मोही जाता है
इन स्थानों विशेषो
पर जाने पर.....! कारण.....? बहुत ही
अदृश्य जुने
अनंत काल से
इस मंडल-मंडलों
में अपनी ही
कमाई-इच्छा-वासनाओं
को लेकर सैसटिव
फंसी विशेष हुई
हैं जो इस
कर्मकांडो के
भ्रम में
चमत्कारों का
तड़का लगाकर
अपनी कमाई द्वारा
भ्रमाती आई
हैं और आगे भी
यह करती
रहेंगी । जैसे
समाज की
उन्नति जनता
के जागरूक
होने में है
उसी तरह रूह
की तरक्की
अपने निज़ सफ़र
में पूरी तरह
से जागरूक
होने पर ही
संभव है, वरना
इसकी कल्पना भी
व्यर्थ का
ढकोसला ही है ।
इन सभी आडम्बरों
में सत्य का
कोई काल्पनिक
विचार भी नहीं
है - वह तो केवल
अपनी ही नीज़
धुन में
व्याप्त मत्स
विशेष है - इस
खेल के लिए तो “ महा
अनंत घौर समर्था
विशेष ” ही सदा निरंतर
तीनों कालों
में प्लस-माइनस
लेन-देन हेतु
प्रत्यक्ष
उपलब्ध विशेष
है - प्रत्येक
महीन से महिन जर्रे
विशेष में भी
भरपूर - लबालब .....?
ग्रहस्थ
में उदासी ही
सच्चा मार्ग
है शॉर्टकट के
रूप में - सीधे
देवताओं से भी
ऊपर जंप लगा
घर पहुंचने का
दुर्लभ
आवश्यक साधन
विशेष.....! वो भी
बाहर कहीं भी
नहीं - कुछ भी
नहीं - केवल
स्वंय के ही
अंदर में जंप
लगाना.....! वो भी
केवल स्वंय के
ही द्वारा.....! यह
भी केवल तभी
संभव है जब यह
जागे - पर इसे
तो फुर्सत ही
कहां है देव-देवी-गुरु-सतगुरु-दर्शन-तीरथ-धाम-मृत-भूत-पूजा-अर्चना
इत्यादि से .....! “ अन्तर
जयोत निरन्तर
बाणी – साचे
साहब सो चित
लाये ”
“ मनमुख
मुग्ध कुछ
बूझे नाहि
बाहर भालण जाई
”
सभी इस
अमृत रूपी
शब्द - नाम रूपी
विशेष तक पहुंचना
चाहते हैं पर मिलता
किसे है.....? जो
स्वंय को इनसे
( छोड वेष – भेख –
चतुराई –
दुविधा – इह फल नाही
जिओ ) ऊपर
उठाता है एक
चींटी के
पहाड़ पर
चढ़ने के घोर
कृत्य जैसा .....!
दोऐ लोचन
मूंद के बैठ
रहयो बक ध्यान
लगाये –
न्यात
फिरयो लिये
सात समुद्रन
लोक गयो परलोक
गवाइयो ।
साच कंहू
सुन लहयो सभै –
जिन प्रेम
कियो तिन ही
प्रभ पाइयो ।।
प्रेम
के आतम रस में
रची सच्ची
प्रेम आत्मा
और कहीं भी
नहीं रचती
बसती - वह तो
केवल अपने ही
निजी घर में
अपने सच्चे पुरुषार्थ
से निरंतर अपने
सच्चे पति के
ही ध्यान में
आराधती है और
सत्य
कर्मों-व्यवहारों
से निरंतर साबित
करती जाती है,
बिना किसी भी
मांग-दुविधा
के.....! धर्मशाला (
आज के सभी
धर्म के नाम
पर व्यापारिक
अड्डे ) विच धड़वाई
(लुटेरे)
रहंदे – ठाकुर द्वारे
ठग - मसींदा
विच कसबी ( गले
काटने वाले
हत्यारे ) बसन - आशिक
( सच्ची आत्मा ) रहना
अलग .....! सच्ची
आशिक आत्मा का
निज स्थान
विशेष सुहागन
होना है जो
केवल अपने पति
के घर में ही
रहना पसंद
करती है - जो
जाती तो डोली
में हैं लेकिन
निकलने की बात
आए तो केवल
अर्थी के रूप
में ही वापस
आती है .....! हे
चलाक आत्मा तू
कौन सी श्रेणी
विशेष में आती
है यह तो केवल
तू ही स्वयं को
जानती - पहचान
सकती है .....?
दो
नाव का सवार
कभी भी पार नहीं
पहुंचता फिर
यहां तो स्वंय
के वजूद का
प्रत्येक जरा
एक अलग ही
जहाज पर सवार
करा रखा है.....? आखिर
कोई जरा तो
पहुंचेगा ही .....!
दो से इश्क को
आप रंडी कहते
हो पर यहां तो
नित्य सवेरे
कुछ नया ही
अफेयर देखने
को मिलता है -
क्या कहने इस
रंडी आत्मा की
रईसी के इस
शौक को .....! फिर
भी अहंकार है , मेरा
सतगुरु सबसे
ऊंचा - बड़ा है .....!
सब से
निकृष्ट
कृत्य को
कोल्ड ब्लडेड
मडर नहीं
बल्कि हलाल
कहा जाता है
और लाखों कत्ल
कर मांस-खून
को सच के नाम
पर प्रसाद-मुक्ति
का साधन बना-फूंख
कर पूरी
दुनिया में
बांटा जाता है
और बालों का
त्याग कर नऐ
कु-कृतियों को
करने हेतु
बढ़िया सा
ग्राउंड फिर से
तैयार कर लिया
जाता है .....?
अंतर
में फिर से
अनार-फुलझड़ियां
फूठती हैं मैं
एक बार फिर से
मुक्त विशेष
हो गया..... ?
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