44. अमृत - नाम

            गुरु साहिब लिख कर इस पदार्थ की व्याख्या कर रहे हैं कि यह तो केवल मर-मर जीवे - ता किछ पावै से ही उपलब्ध होना सम्भव है...! बाकी सब तो व्यर्थ का प्रलाप-भ्रम ही है - कि मुझे आसानी से मिल गया - मैंने पी लिया - नहा लिया वगैरह- वगैरह ।

            अमृत-नाम भोजन हर देयी - खरबन मधे कोइ विरली रूह विशेष ही - अनन्त जन्मों-जन्मों के निरन्तर सत्यार्थ पुरूषारथो से ही “एहसास करेई ...? यही सृष्टि के इस मायावी तमाशे विशेष का आखिरी सत्य विशेष है । जिसे प्रत्यक्ष अनुभव विशेष करके ही रुह इस जन्म-मरन के अनन्त विशाल कुचक्र से मुक्ति प्राप्त कर पाती हैं...! शेष तो केवल कमाई-खर्च के आधार भूतिक कोड विशेष में बंधा हुआ घौर महा अनन्त जूनों-प्रकृतियों का सुख-दुख-स्वादों से भरपूर एक महाकालचक्र ही है जो काल (समर्था) के आधीन नीचे से ऊपर तक अनंत महाकाल से लगातार घूमता ही रहता है !

             सुख - छूटने का इस महाकाल रूपी तमाशे में कुछ भी और विकल्प विशेष है ही नहीं - फिर भटकने से क्या लाभ...!

            शेष सभी जल रूपी अमृत - लफ्जी नाम - गद्दी गुरु सतगुरु - जल स्नान तीर्थ भ्रमण दर्शन - मंत्र जाप सिमरण - रटना गाना प्रार्थना नाचना कूदना इत्यादि-इत्यादि एक बहुत ही मीठा और सस्ता सा आभास रूपी घौर भयानक डिस्ट्रैक्शन हैं जो काल (समर्था) द्वारा प्रत्यक्ष किया हुआ मन तथा अनन्त काल से यहां फंसी डूबी हुई स्वादों-वासनाओ-इचछाओं के जालों विशेष में - भूतकालीन आत्माओं विशेषों द्वारा चलाया-घुमाया जाता है - निरंतर प्रभावशाली ढंगों-कर्मकांण्डो से प्रेरित करते - करवाते हुऐ....!

             रूह विशेष का तो इन सभी कुच्चकरो से कुछ भी लेना-देना ही नहीं है...! ये सब तो मन-ईन्द्रियों की इच्छाओं-जरूरतों को पूरा करने का बहुत ही स्वादिष्ट मार्ग साधन विशेष है...!  आत्मा का भोजन - तृप्ति-शान्ती-सुख तो केवल नाम-अमृत ही है जो इसी के घर-घट रूपी महल विशेष में निरंतर सदा से उपलब्ध विशेष रहता है...! जिस का ना तो इसे एहसास है और ना ही इस के पास कुछ भी सत्य जानने हेतू समय ही उपलब्ध हो पाता है....? यह तो केवल एक रंण्डी विशेष की तरह निरंतर अपने निज घर विशेष से बाहर आवारागर्दी ही करती रहती है । पराये पुरख की तलाश में ताकि ये उस से मोह-ममता-प्यार कर के कुछ सुख प्राप्त कर सकें...? यही भ्रम इसे इस दुखी-तड़पाने वाले महाकाल चक्र से बांधे रखता है...!

              जब भी इसे मनुष्य जन्म में एक दुर्लभ मौका मिलता है सुखी-शांन्त होने हेतू-तो ये फिर से एक ओर बार मन-इंद्रियो रुपी नौ नम्बरों विशेषों पर ही अपना चालाकी से भरा हुआ दांव विशेष लगाती हैं और उपलब्धियों के झूठे-लोभ-मोह-माया-मान सम्मान के महासागर में गोते लगाती हुई अपने को बहुत ही चतुर-बुद्बिमान विशेष साबित करती - समझती हुई फिर से एक ओर बार इस काल के महाकाले सागर में डूबे जाती हैं....!

             दसवें नम्बर को तो ये भूल ही चुकी है पूरी तरह से क्योंकि इस रूह को तो ना भूख लगती है और  न ही प्यास - फिर ये क्यों कर प्रयत्न करने लगी भूख-प्यास मिटाने हेतू भोजन का प्रबंध.....? जब कि ये अनमोल थाली तो विशेषतया निरंतर सदा इस के अपने ही घर-घट में प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष रहती है.....! पर जिस के लक्षण कुल कक्षणियो वाले हों - जिस का घर में पैर ही ना टिकता हो - खस्म का कुछ एहसास ही ना हो तो फिर उस की तारीफ किन लफ़्ज़ों विशेषों में की जा सकती है...?  राण्ड लफज तो स्वयं इस के सामने खुद को बहुत ही छोटा और शर्मीला सा साबित - समझता विशेष है......!

             जब कि ये भोजन की थाली विशेष तो इसका खस्म इसे इस अनमोल दुर्लभ मनुष्य जन्म में अवतरित होते ही इस पर दया कर इसे सौंप देता है मातृ गर्भ में आपन सिमरन दे कर राखे – तुम सदा राखणहारे...!

तुम दाते ठाकुर प्रतिपालक – नाइक खसम हमारे ।

निमख निमख तुम ही प्रतिपालहु – हम बारिक तुमरे धारे ।

कोट अपराध हमारे खंडह – अनिक बिधी समझावह ।

हम अगिआन अलप मत थोरी – तुम आपन बिरद रखावह ।

जेता समुंद–सागर नीर भरिआ – तेते अउगण हमारे ।

दइआ करह – किछ मिहर उपावह – डुबदे पथर तारे ।

खस्म विशेष तो अपने विृद का सदा ही से पालन करता आ रहा है - परंतु इस रण्डी विशेष का तो भरोसा नहीं किया जा सकता - पता नहीं कब कौन सा नया पुरुष-स्वाद-इच्छा-कामना-मोह-माया-मान-सम्मान इत्यादि वगैरह-वगैरह इस के मन विशेष को भा जाये और फिर से एक बार और इस महा खूबसूरती से लबालब भरे हुए चकले विशेष का अभिन्न अंग बनने हेतू उतावली हो घर निज से दौड़ कर निकल पड़े और फिर इसे इन स्वादों में ऐसा सुख-शांति मिले - अनुभव हो और वापस घर लौटने की सुध ही न रहे.....!

             ऐसा एक दो बार नहीं बल्कि अनन्त महाकाल से यही दोहराया जा रहा है....!

             कलयुग घौर की पहचान है कि आप को कहीं भी भटकने की जरूरत ही नहीं है - हर समस्या का हल हर वक्त सुलभ है । बस मात्र आप के चाहने भर की ही देर  है । प्रभु महान भी उपायों-साधनों सहित बिना आप के कुछ भी उधम विशेष किये - डिब्बों में पैक कर आप के घर-दरवाजे स्थानों पर अविलम्ब पहुंचा-डिलीवर कर दिये जाते हैं । तो फिर बाकी समाज के साधनों-प्रकारों की तो बात तक करना भी व्यर्थ समय की बरबादी ही होगी....?

             समाज रण्डी के चक्कर लगाता है और रण्डी दलालों के अड्डों विशेषों में भटकती फिरती हैं......? और फिर दल्ले तो हर दूसरे घर में सजे सजाये साधनों-मालाओं-टोनों इत्यादि से लैस एक दम फ्री केवल आप के इंतजार विशेष में ही तैयार पर तैयार मिलेंगे....? (वो भी आप की पूर्ण मुक्ति का प्रमाणित सर्टिफिकेट विशेष लिये हुऐ...!)

              हउमे-नावै विरोध हैं दोऊ न वसै इक ठाऊ” - होमै यानी मन और नावै यानी के रुह - ये दोनों एक ही घर में इकठ्ठे नहीं रह सकते...! यही विडंबना है कि दोनों एक दूसरे में पूरी तरह से समाये रचे-बसे हुऐ हैं। अब तो सोचना केवल आप ही ने है कि आप ने किस को चलाना है....? मन को या रूह को” ये बिल्कुल ऐसा ही है कि जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकती...! आप के फैसले का इंतजार भर है - दम तो निरंतर घटते ही जा रहे हैं और आप हो कि अब भी कन्फ्यूज ही हो रहे हो - क्योंकि सभी अच्छे-बुरे नतीजे विशेषतया आप के अपने इसी निजी फैसले पर ही निर्भर विशेष करते हैं - यही इस सृष्टि का आखिरी सात्विक सत्य है....?

मै अंधुले की टेक तेरा नाम खुंदकारा

मै गरीब मै मसकीन तेरा नाम है अधारा

T.B.C…...?

सभी तस्वीरें काल्पनिक है - इनकी प्रत्यक्षिता केवल जानकारी हेतू ही प्रत्यक्ष की गई है…! (बेशक आधार भूतिक सत्य विशेष इनमें प्रत्यक्ष हैं - ब्राह्मांडिक अश्क विशेष केवल डिस्ट्रेक्शन अथवा कवर अप मात्र ही है) केवल सात्विक पुरुषार्थ विशेष ही सही दिशा निर्देश है…..! तस्वीर पूजक को परमात्मा की निश्चित देन ? “ वडिऐ हथ दलाल के मसुफी एह करेई !”

Back to Index | Next