21. यहां अधिकार से तात्पर्य स्वतंत्रता से हैं अर्थात प्रत्येक आत्मा विशेष को मनुष्य जन्म में सम्पूर्ण अधिकारिक स्वतंत्रता विशेष हैं व्यवहारिक रूप से । इसी लिये उसे प्रत्येक सामाजिक अंग विशेष में भी – ज्ञान रूपी ताकत विशेष प्राप्त करने का भी पूर्ण स्वतंत्र अधिकार विशेष हैं प्रत्येक काल में निरंतर । स्वतंत्रता का अर्थ समाज में कभी भी – कहीं भी – कुछ भी करने का तात्पर्य केवल बलात्कार रूपी शब्द विशेष को ही पोषित करना विशेष हैं ...! अर्थात केवल मर्यादित व्यवहारिक सोच विशेष ही आत्मा के लिये लाभकारी स्वतंत्रता विशेष हैं । यानी के प्रत्येक सूक्ष्म से भी सूक्ष्म व्यवहारिक सोच विशेष का पूरी सत्ता अर्थात सम्पूर्ण चर-अचर जगत रूपी सृष्टि विशेष पर क्या असर पढ़ता हैं ...? केवल और केवल इसी से ही आत्मा की इस महान अधिकारिक स्वतंत्रता का फल विशेष जुर्माने अथवा मुआवजे के रूप में उस के निजी अकाउंट विशेष में निश्चित रूप से डिपोज़िट विशेष कर दिया जाता हैं लगातार व्यवहारिक रूप से । इसी से ही आत्मा को सुख अथवा दुःख का सामना विशेष करने के लिये बाधित होना ही पढ़ता हैं वैधानिक तौर पर । लगातार अधिक अर्जित किया हुआ मुआवजा विशेष ही ताकत लफ्ज़ विशेष को समृद्धि विशेष प्रदान करता हैं । फिर ठीक उसी प्रकार इस अर्जित की हुई समृद्धि अथवा ताकत विशेष का प्रत्येक सूक्ष्म से भी सूक्ष्म व्यवहारिक संकल्प विशेष – शेष सृष्टि सम्पूर्ण पर कब कितना और कब तक कैसा-कैसा व्यवहारिक प्रभाव विशेष- विशेष-प्रत्यक्ष व्यवहारिक अनुभव विशेष- विशेष करवाता हैं – प्रत्येक कण विशेष को इस संपूर्ण सृष्टि विशेष के – अच्छा या बुरा – लाभकारी या गुणकारी – पथ भ्रष्टपन या पथ दर्शन – केवल और केवल इसी से ही प्रयोग करने वाली आत्मा का अधिकारिक खाता विशेष पोषित होगा जुर्माने अथवा मुआवजे विशेष के रूप में ...! अतः प्रत्येक सूक्ष्म खर्च पर भी विशेष सावधानी अवश्य अपनायें । आप सृष्टि में भले हेतु अपनी ताकत का प्रयोग करते हैं लेकिन सामने वाला अपने किसी निजी स्वाद-स्वार्थ अथवा मकसद हेतु उसे स्वीकार नहीं करता अन्दरूनी  मन रूपी समवेदना अथवा वासना के कारण तो आपको अवश्य जुर्माने विशेष का ही सामना करना पढ़ेगा यकीनी तौर पर वैधानिक रूप से – क्योंकि यह क्रिया दूसरे के अधिकारिक स्वतंत्रता में निजी दखल विशेष साबित होगी ...! अर्थात सामने वाले का भी पूरी तरह से अपने आवश्यक लक्ष्य विशेष के प्रति पूरी तरह से जागृत होना – विशेष रूप से अति आवश्यक विशेष हैं प्रत्येक काल में निरंतर – केवल और केवल तभी आप अवश्य ही लाभान्वित होंगे अपने इस दुर्लभ विशेष ताकत रूपी खर्च के द्वारा .. !

22. मांस – शराब – जुआ – झूठ तथा जोगिंग रूपी पांचो लफ्जों विशेषो पर निरंतर व्यवहारिक कार्य विशेष किये बिना आप अपने लक्ष्य विशेष आवश्यक की और अगृसित नहीं हो सकते । मांस से तात्पर्य हैं जीव का प्रत्येक काल में केवल प्रामाणिक सात्विक तरीके से ही अर्जित किया हुआ शुद्ध वानस्पतिक अन्न विशेष द्वारा निजी तथा सामाजिक पोषण । दूसरे की थाली विशेष में झांकने वाला शुद्ध सात्विक या शाकाहारी कैसे कहलवा सकता हैं स्वयं विशेष को ...? अर्थात वह निश्चित रूप से पुरुषार्थहीन ही साबित होगा तथा पुरुषार्थहीन अवश्य स्वाभिमानता से रहित ही होता हैं और जो आत्मा मनुष्य जन्म में  स्वाभिमानी नहीं हैं – यकीनी रूप से जान लो कि यह दुर्लभ अनमोल मनुष्य की धरोहर रूपी दात परमार्थ विशेष उस के लिये तो कदापि बिल्कुल भी नहीं हैं प्रत्येक काल में व्यवहारिक प्रामाणिक तौर पर – अवश्य ही गांठ बाँध ले चालाक आत्मिक धर्मात्मा विशेष महान-महान ...! केवल विशेष काल – स्थिति अथवा कारण हेतु ही मांस पर विचार किया जाता हैं – केवल और केवल आत्मा के मनुष्य जन्म में स्थिरता के आधारभूतिक आवश्यकता में अभाव रूपी किसी विशेष स्थिति को ध्यान में रख कर किसी नाजुक विशेष पृस्थितीवस...!

शराब से तात्पर्य हैं कि जीव को प्रत्येक उस अमल विशेष से दूर ही रखना हैं – अपने आवश्यक कीमती मनुष्य शरीर को – जिस के सेवन अथवा संग विशेष से शरीर में गिरावट आये और जीव अपने उस आवश्यक लक्ष्य से ही भटक जाये जिसे जीते जी प्राप्त करने हेतु ही उस को ये अनमोल आवश्यक जन्म विशेष मिला हैं । केवल शारीरिक सावधानी से ही काम नहीं बनेगा – बल्कि मानसिक विकृत प्रवृतियों पर भी निरंतर जागरूक आवश्यक अंकुश रूपी आज के वैधानिक उपाय विशेष इत्यादि करने भी उतने ही आवश्यक हैं – जितने के शरीर को स्वस्थ रखने हेतु कुपोषण से बचना तथा मन और शरीर की स्थिरता हेतु सात्विक उपायों का निरंतर अभ्यास विशेष ...!

बार-बार घूमना-शापिंग-वस्तु-पदार्थों को बदलना इत्यादि-इत्यादि अपनी क्षमताओं से अधिक मान-सम्मान-दिखावे हेतु लगातार उधार-कर्ज लेना-बढ़ाना तथा समाज में अराजकता फैलाते हुए मानसिक रोगी बनना तथा अपनी साथी सम्बन्धित आत्माओं को भी अपने साथ सामाजिक अपराधी साबित करते हुए नर्को विशेषो का भागीदार बनना-बनाने में साधन साबित होना ...!

जुऐ (जुआ) का तात्पर्य यहां पर दुर्लभ आवश्यक प्राण रूपी पूंजी विशेष का खर्च बड़ी ही सावधानी से वहां करना हैं जहां मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य विशेष भी पूरा हो और उस की आवश्यक यात्रा विशेष अपने लक्ष्य के प्रति भी निरंतर बिना रुके लगातार बढ़ती ही रहे और आखिरी पाई रूपी प्राण के खर्च हो जाने से पहिले ही जीते जी जीव विशेष अपने आधार विशेष रूपी लक्ष्य को प्रत्यक्ष व्यवहारिक रूप से अनुभव विशेष कर ले केवल जागृत अवस्था विशेष में ही – लक्ष्य विशेष आवश्यक की प्राप्ति रूपी सफलता विशेष हैं – जीतने की – मनुष्य जन्म रूपी जुऐ विशेष में – खर्च रूपी दांव विशेष लगाने की ...! जगत में गुजारे मात्र की प्रविष्टि अर्थात अपनी आवश्यक मर्यादित जिम्मेदारियों का पूर्ण सात्विक ईमानदारी से भुगतान मात्र ही अपने अनमोल मनुष्य जन्म का जायज़ आवश्यक खर्च विशेष हैं – निरंतर अपने लक्ष्य विशेष की और सात्विक जागरूकता विशेष रखते हुए ...!

ूठ से तात्पर्य हैं मन के अन्दर और बाहर के स्वरूप में भेद होना अर्थात जो हैं उसे छिपाना या पर्दा डालना और जो वैचारिक रूप में भी नहीं हैं  उसे लगातार बाहर से नकली तौर पर साबित करते रहना अपने सभी साधन-कुसाधनो के जोड़-तोड़-प्रयोग के द्वारा समाज को जायज़-नाजायज़ मनवाना ...!  

जब भी कोई आत्मा विशेष अपने जायज़-नाजायज़ साधनों विशेषो से किसी भी दूसरी आत्मा से आवश्यक दुर्लभ अधिकार विशेष में प्रवेश अथवा दखल विशेष करती हैं तो यह दूसरी आत्मा विशेष का शोषण अथवा बलात्कार विशेष ही होता हैं वैधानिक तौर पर ...! फिर पशु-परिंदे का मास खाने वाला मांसाहारी तथा ऐलकोहल पीने वाले को शराबी कहा जाता हैं – लेकिन ऐसे महान तीर्थ यात्री रूपी ब्लात्कारी को समाज में वैधानिक तौर पर प्रामाणिक रूप से प्रभु दृष्टि द्वारा प्रत्येक काल में अवश्य आवश्यक रूप से आदमखोर ही साबित होगे – क्योंकि वह पशु-परिंदे का नहीं बल्कि आदम यानी के मनुष्य का ही मांस खाता हैं तथा ऐलकोहल रूपी शराब की जगह पर मनुष्य का ताजा-ताजा-गर्म-गर्म सुर्ख लाल से रंग के खून से बनी दुर्लभ वाईन ही का सेवन विशेष करता हैं – वो भी अपने सभी प्रिय-प्रिय सम्बन्धियों-जानकारों तथा परिवार जनों के साथ – टैन स्टार होटलों में – वो भी सोने से सजे बर्तनों विशेषो में – डाईनिंग टेबलो पर गुलामों द्वारा सजवा कर ...! और ऐसे महान-महान धर्मात्मा तीर्थ यात्री समाज में महान सत संगी विशेष -महाराज-पातशाह-गुरु-बाबे-परमेश्वर पुत्र-पैगम्बर इत्यादि- इत्यादि गुरुमुख महान-महान कहलाते हैं – प्रभु उत्पादक विशेष-विशेष ...!

प्रभु विशेष रूप से या तो कांणा विशेष हैं अथवा वैध मर्ज खोजने में असफल विशेष हैं प्रभु का ...! शायद प्रभु काले मोतिया बिन्दु से ग्रसित हैं, इसलिये किसी चतुर गुरूमुख (सत्संगी) आत्मा विशेष ने उस के माथे विशेष पर पूसिया विशेष लिख दिया हैं और प्रभु को इस का बिल्कुल भी भान तक ही नहीं हैं – उस की अपनी ही सोच आवश्यक विशेष में क्या-क्या चमत्कार विशेष- विशेष हो रहे हैं वो भी व्यवहारिक रूप से ...!

केवल अपने निजी मान-सम्मान-दिखावे अथवा निकृष्ट कमीनी वासनाओं की पूर्ति हेतु अपने साधनों विशेषो का दुरुपयोग करना । अपने अवश्य निजी लक्ष्य विशेष के प्रति पूर्णतया निरंतर जागरूक विशेष रह कर अपने उपलब्ध जायज़ साधनों विशेषो का निरंतर समाज के प्रति पूर्णतया सदुपयोग ही झूठ से सावधान हो कर बचना विशेष हैं प्रत्येक काल में प्रामाणिक तौर पर वैधानिक रूप से ...! आप का प्रत्येक सूक्ष्म से भी सूक्ष्म व्यवहारिक झूठ आप को अपने लक्ष्य से दूर लेकिन घौर तड़पाने वाले नर्को विशेषो के निरंतर समीप बल्कि आप को बार-बार उन में डुबकियां विशेष- विशेष लगाने हेतु तड़पा-तड़पा कर अवश्य ही निजी अनुभव विशेष करवाने हेतु आवश्यक रूप से मजबूर विशेष कर ही देगा – ऐसा स्पष्ट जान लो ।

ोगिंग का तात्पर्य यहां मनुष्य शरीर का स्वास्थ्य अर्थात पूर्ण रूप से जागरूक विशेष होना हैं अपने लक्ष्य विशेष के प्रति निरंतर आखिरी प्राण शक्ति के खर्च होने तक । यानी के जीव को जो साधन रूपी दुर्लभ आवश्यक शरीर विशेष मिला हैं वो केवल साधन हैं अपने आवश्यक लक्ष्य विशेष को प्राप्त करने हेतु – इन्द्रियों विशेषो के स्वादों-वासनाओं के हेतु इसे निरंतर ज़हर से पोषित कर जर्जर बनाना और फिर निरंतर धीरे-धीरे इसे गवा कर अपने आवश्यक लक्ष्य विशेष को खो देना कहां की लयाकत अथवा बुद्धिमानी हैं ...? फिर यह दुर्लभ आवश्यक मौका विशेष कब मिलेगा – इस का जवाब तो किसी के पास भी नहीं हैं – इन अनन्त निकृष्ट-निकृष्ट कमीनी सी जूनो विशेषो के अथाह सागर में फंसी हुई इसी आत्मा विशेष को कौन बाहर निकालने समर्थ हैं जब कि यह स्वयं ही इस भवसागर से बाहर निकलना ही नहीं चाहती ...! प्रमाण प्रत्यक्ष हैं अपने अन्दर झांक कर देख ले हे चालाक आत्मा विशेष ...! तुझे कभी फुरसत मिली हैं अपने स्वादों-वासनाओं-कामनाओं को पूरा करने से कि तू विचार सके कि तू यहां क्यों हैं तथा तेरा आवश्यक कौन सा लक्ष्य रूपी कार्य विशेष हैं ...?

अर्थात अपने शारीरिक स्वास्थ्य-पोषण तथा कार्य शीलता के प्रति निरंतर पूर्णतया जागरूक विशेष रहना ही जोगिंग लफ्ज़ विशेष को पोषित करता हैं व्यवहारिक रूप से केवल अपने ही निजी आवश्यक लाभ विशेष हेतु ताकि आप लक्ष्य विशेष को पल-पल प्रत्यक्ष अनुभव विशेष कर सकें । शरीर की सफाई विशेषता पेट का साफ रहना तथा कार्य और क्षमता अनुसार शुद्ध सात्विक-नियमित तथा विशेषता जायज़ निश्चित आवश्यक अंतराल में ही सेवन करना उचित तथा आवश्यक लाभकारी साबित होता हैं ।

इन लफ्ज़ो विशेषो की प्रमाणिकता से आत्मा का दूर रहना साबित करता हैं कि आत्मा अपनी स्वयं की चालाकी में केवल एक ही कार्य विशेष आवश्यक रूप से करने में निरंतर संलग्न विशेष हैं अर्थात जिस डाली पर बैठी हैं उसे ही काटने में निरंतर तत्पर विशेष हैं – यह देखने विचारने में भी अंजान कि नीचे तो केवल आग का भयानक दर्या विशेष ही उसे निगलने को तत्पर विशेष हैं ...! फिर सियाणत की हद तो देखो कि सभी फोकट के उपायों विशेषो से एक ही मांग करता हैं केवल जुबान विशेष से कि स्वर्ग ही चाहिये – लेकिन प्रत्येक सोच तथा व्यवहार से तो एक ही बात साबित करता हैं कि मुझ से बढ़िया बलात्कारी कोई हैं ही नहीं – न ही कोई हुआ हैं और न ही आगे भी कोई मेरा मुकाबला कर पायेगा ...? फिर कैसे इसके दुखों का अंत हो सकता हैं ...? जिन की तो अभी शुरूआत भी नहीं हुई हैं – तेरी चालाकियों का नतीजा सुख-साधन कैसे हो सकता हैं - ? अवश्य ही कोई और भी चालाकी विशेष हैं जिसे तू जान कर भी समझ ही नहीं पा रहा हैं ...! इन्तजार कर आँख बन्द होते ही तुझे अवश्य ही निरंतर याद विशेष करवाया जायेगा – तेरा विशेष सूक्ष्म से भी सूक्ष्म बलात्कार विशेष महान-महान ...! फिर तड़प-तड़प कर तू स्वयं को ही कोसे गा कि काश तू प्राण के रहते जाग गया होता और सावधान हो कर अपना आवश्यक होम वर्क मनुष्य जन्म का पूरा विशेष कर लिया होता ...! पर अब क्या हो सकता हैं कूक पुकार को न सुणे अत्थे पकड़ हो ढोहया । ये नतीजा निश्चित हैं सभी चालाकियों विशेषो का – बीजै बिख मंगै अमृत तो फिर कैसे किसी भी सुख की प्राप्ति सम्भव हैं ...?

 

लख चौरासी जौन सभाई – मानस को प्रभ दी वड़ीयाई ।

इस पउड़ी ते जो नर चूकै – आई जाई दुःख पाईदा ।।

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